
Sunday, December 12, 2010
Monday, July 26, 2010
कुछ कहती है तस्वीरें - 4
Monday, July 5, 2010
राजनीतिक ख़बरों का दबदबा हर जगह कायम
'हिन्दुस्तान' 06 जनवरी के अंक की शुरुआत एक एक्सक्लूसिव खबर के साथ करता है,जो उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के आदेश पर लागु होने वाले 'एमनेस्टी योजना' से संम्बंधित है | इस योजना का उदेश्य वैसे लोगों को फायदा पहुँचाना है जो वर्षों से मकान या अपार्टमेंट का होल्डिंग टैक्स जमा नहीं किए हैं | 07 जनवरी के अंक का सेकेन्ड लीड खबर है- 'महादलितों को मिलेगा मकान', तो 08 जनवरी की शुरुआत होती है हेडलाईन- पौने तीन लाख की कार 07 सवार से |
सामान्य तौर पर देखें तो इन खबरों में हमें कुछ खास नहीं दिखता | सभी खबरें आम लोगों से जुड़ी हुई दिखती हैं, चाहे वह 'एमनेस्टी योजना' हो या महादलितों एवं सस्ती कार से जुड़ी खबर | परन्तु यह सारी ख़बरें राजनीतिक लाभ से प्रेरित हैं | 'एमनेस्टी योजना' शहरी वर्ग के 'ओपिनियन मेकर' समूह को लुभाने के लिए है तो दूसरी ख़बर स्पष्ट रूप से दलित वर्ग को आकर्षित करने के लिए | चूँकि आज लोगों की सोच अधिक भौतिकवादी होती जा रही है, इसलिए समाज के ओपिनियन मेकर समुह को खुश करने के लिए कार और मोटरसाईकल की खबरें देना भी मजबूरी है |
यही ख़बरें अलग - अलग हेडिंग के साथ अन्य अखबारों में भी प्रकाशित है, जैसे ‘दैनिक जागरण’ में- भूमिहीन महादलितों को मिलेगा घर, स्वागत करिए छोटी कारों की नई पीढी का आदी |
जनसत्ता के विकल्प के रूप में देखे जा रहे 'प्रभात ख़बर' का आलम तो यह है कि वह नीतीश सरकार की उम्र चार साल से अधिक हो जाने के बावजूद सपने बेचने का कार्य ही कर रही है, जैसे- ‘विकास के लिए वर्ल्ड बैंक का बिहार को ऑफर’, 'बिहार में भी मल्टीप्लेक्स आदी | ऐसा कोई भी अखबार नहीं जिसका एक पन्ना भी राजनीतिक ख़बरों से अछुता हो, पर प्रभात खबर तो उसमें भी एक कदम आगे है, इसने तो अपने दूसरे पन्ने का नाम ही 'Politics' कर रखा है |
प्रभात ख़बर का अर्न्तवस्तु इस बात को पूरी तरह पुष्ट करता है कि इसका मैनेजमेंट राजनीतिक दलों को खुश करने में लगा है | जो उनके व्यवसाय के लिए हितकर है | जिसे आधुनिक टर्मोलोजी के अनुसार बेहतरीन PR (Public Relation) भी कह सकते हैं|
अगर हम ख़बरों के स्थानीयता के आधार पर बात करें तो सभी अखबारों में स्थानीय ख़बरों के लिए अधिक तथा राष्ट्रीय, अर्न्तराष्ट्रीय ख़बरों के लिए जगह कम होते जा रहे हैं | हम यह भी कह सकते हैं कि आज हर अखबार का स्वरूप स्थानीय होता जा रहा है | हर अखबार सेहत-स्वास्थय और पर्यटन से जुड़ी ख़बरें भी दे रहा है | एक बात जो साफ तौर पर निकल कर सामने आती है वह यह कि पटना के अखबारों में भी और जगहों की तरह टेक्नोलॉजी से जुड़ी ख़बरों के लिए हर अखबार में लगातार जगह बढ रही है, इसकी वजह हम संचार क्रांति और कम्प्यूटर यूग के विस्तार को मान सकते हैं |
इस विश्लेषण में सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह निकल कर सामने आती है कि सभी अखबार नीतीश सरकार के 'जनसंपर्क मुहिम' ( PR campaign ) का हिस्सा बनी हुई है | अखबारों में इस बात की चर्चा तो होती है कि गाँव-गाँव में बिजली के तार लटकने लगे हैं, पर इस बात की चर्चा कोई अखबार नहीं करता कि उन तारों में बिजली आती भी है या नहीं | जगह-जगह हो रहे वृक्षारोपण की ख़बरें तो हर अखबार छापता है, परन्तु वृक्षारोपण के पश्चात पेड़ों की देखभाल हो रही है या नहीं पेड़ बचे भी हैं या नहीं, यह ख़बरें अखबारों से नदारद रहती है |
पंचायतों के विकास के लिए किए जा रहे फंडों की व्यवस्था की ख़बरों को तो प्रमुखता से छापा जाता है पर उस फंड के हो रहे बन्दरबाँट की खबरें शायद ही छपती हैं |किसानों से संबन्धित खाद-बीज की समस्याओं को भी उतनी जगह अखबारों में नहीं मिल पाती, जितनी मिलनी चाहिए | कुछ समय पहले 'पैक्स चुनाव' की खबरों से अखबारों के पन्ने रंगे रहते थे, पर चुनावी उत्सव बितने के पश्चात विजयी उम्मिदवारों के किसी भी गतिविधी की ख़बर नहीं दिखाई दे रही | चुँकि यह समय शीतलहर से प्रभावित है, ऐसे में मुख्यमंत्री द्वारा शहरी क्षेत्रों में अलाव की व्यवस्था के निरिक्षण की खबर तो सचित्र प्रकाशित होती है, परन्तु गाँव के गरीबों के ठिठुरन की खबर किसी को नहीं है |
नीतीश कुमार के 'बेस्ट बिजनेस रिफार्मर औफ द ईयर' चुने जाने की खबर 'प्रभात ख़बर' और 'हिन्दुस्तान' दोनों में प्रमुखता से छापी जाती है तथा गंगा की लहरों पर किए जा रहे राज्य सरकार के कैबिनेट मिटींग को सभी अखबार एक सूर में 'अभिनव प्रयोग' करार देते हैं, पर इस 'अभिनव प्रयोग' के बहाने जनता की गाढी कमाई को किस तरह खर्च किया जा रहा है, इस पर लिखने की जहमत उठाने वाला कोई नहीं है |
कहना गलत नहीं होगा कि व्यवसायिकता के कश्मकश के बीच भी मीडिया को अपनी निष्पक्षता बनाए रखनी चाहिए, जिससे कि उसके 'लोकतंत्र के चौथे खम्भे' के तगमे में दरार न आए |
Thursday, May 6, 2010
चाँद को बख्श दो

सुन सुन के आशिकी के तराने
पक गया है
चाँद
चाँद को बख्श दो
वो थक गया है
शक्ल जब अपने यार की
चाँद से मिलाते हैं
आसमान में चाँद मिया
देख देख झल्लाते हैं
अपनी सूरत पहचानने में
दम उनका चुक गया है
चाँद को बख्श दो
वो थक गया है
बे- बात की बात
सारी रात किया करते हैं
हाल-ए-दिल सुना कर
जबरदस्ती
चाँद का सुकून
पीया करते हैं
तन्हाई, बेवफाई, आशनाई
के किस्सों से
उसका माथा दुःख गया है
चाँद को बख्श दो
वो थक गया है
कभी दोस्त, कभी डाकिया
कभी हमराज़ बनाते हैं
उसकी कभी सुनते नहीं
बस अपनी ही सुनाते हैं
इस एकतरफा रिश्ते से
दम उसका घुट गया है
चाँद को बख्श दो ..........
- Sonal Rastogi
कुछ कहानियाँ,कुछ नज्में ब्लॉग पर पूर्व में प्रकाशित
कुछ कहती है तस्वीरें - 3
Friday, April 23, 2010
सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता जरूरी - प्रो.दीक्षित
उन्होंने कहा कि मीडिया के मूल्यों में बदलाव आया है। पहले समाज के हर समूह से खबरें प्रस्तुत की जाती थीं, आज सिर्फ पाठकों की रूचि को ध्यान में रखकर खबरें पेश की जा रही हैं । रीडरशिप के अनुसार खबरों के मूल्य निर्धारत किए जाते हैं। वहीं किसी अखबार का पाठकवर्ग कौन है इसके आधार पर खबरें और विज्ञापन भी रूपान्तरित किए जाते हैं ।
अंग्रेजी और क्षेत्रीय अखबारों के कंटेंट डिफरेन्स की बात करते हुए प्रो.दीक्षित ने कहा कि अंग्रेजी अखबारों के मूल्यों में अधिक गिरावट आयी है इनकी सोच अधिक उपभोक्तावादी और व्यवसायिक है । जबकि हिन्दी एंव क्षेत्रीय भाषाओं के अखबार आज भी समाज और सरोकार से जुड़कर विकास हेतु प्रयासरत है । मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता को बढ़ाने के उद्देश्य से एडिटर्स गिल्ड एवं ब्राडकास्टर्स कल्ब ऑफ इण्डिया द्वारा पत्रकारिता शिक्षा और मीडिया जगत के बीच सामंजस्य हेतु किए जा रहे प्रयासों की सराहना की । जनसंचार विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष डॉ.अनिल के.राय `अंकित´ ने व्याख्यान का आरम्भ करते हुए कहा कि अन्तराष्ट्रीय स्तर पर आज मीडिया की विश्वसनीयता चिन्ताजनक है | इसे मूल्यनिश्ठ पत्रकारिता द्वारा ही सन्तुलित किया जा सकता है ।
इस विशेष व्याख्यान में विभाग के अन्य शिक्षकों सहित विभाग के विद्यार्थियों एवं शोधार्थियों ने भागीदारी की ।
Thursday, April 22, 2010
“टेलीविजन समाचारों के अंतर्वस्तु में बदलाव दर्शकों की मांग के अनुरूप हुए हैं ” - हर्ष रंजन

उनका कहना था कि हर खबर के पीछे कुछ व्यावसायिक हित छुपे होते हैं और यह जरूरी भी है। क्योंकि इसके बिना चैनलों को जिंदा रखना सम्भव नहीं है। मीडिया ट्रायल को सही ठहराते हुए उन्होंने कहा कि अगर हम आरूशी हत्याकाण्ड को उदाहरण के रूप में ले तो अगर मीडिया द्वारा इस खबर पर लगातार नज़र नहीं रखी जाती तो यह मामला सी.बी.आई. को नहीं सौपा जाता और फिर उत्तर प्रदेश पुलिस के कारनामें जनता के सामने नहीं आते।
इस सब के बावजूद उनका यह मानना था कि मीडिया से भी कभी-कभी गलतियां हो जाती है, जिसे यथासम्भव दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। उनका कहना था कि मीडिया फैसला सुनाने का अधिकार नहीं रखता, उसे सिर्फ सवाल खड़े करने चाहिए।
इस अवसर पर जनसंचार विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष डॉ. अनिल के. राय ‘अंकित’ ने हर्ष रंजन का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि भावी पीढ़ी की पत्रकारिता को बेहतर बनाने का दायित्व युवा कंधो पर है।
कार्यक्रम में विभाग के शिक्षकों सहित मीडिया के विद्यार्थियों एवं शोधार्थियों की भागीदारी रही।
Tuesday, April 20, 2010
सेक्सवर्करों की वैश्विक एवं राष्ट्रीय स्थिति-2
अब तो वेश्यालय शेयर बाजार में कदम रख चुका है । ऑस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा वेश्यालय है :- ‘द डेली प्लेनेट’।
‘द डेली प्लेनेट’ शेयर बाजार में अपना नाम दर्ज कराने वाला विश्व का पहला वेश्यालय है । कंपनी ने दस साल पहले भी शेयर बाज़ार में कदम रखने की कोशिश की थी लेकिन नाकाम रही। पिछली गर्मियों में इसने फिर शेयर बाज़ार में शिरक़त करने का ऐलान किया और इस बार कामयाब रही । और, मजे कि बात यह कि इस कंपनी के शेयर धड़ाधड़ बिक रहे हैं और बाजार में उसकी कीमत भी तेज़ी से उपर जा रहे है । शुरूआत में इसके एक शेयर की कीमत थी 50 सेंट्स यानी आधा डॉलर और बाजार बन्द होते - होते उसकी कीमत हो गई एक डॉलर और नौ सेंट्स यानी दोगुने से भी ज्यादा ।
इसी तरह न्यूजीलैण्ड के एक अखबार में एक विज्ञापन छापा गया था जो वेश्याओं के लिए रिक्तियों के सम्बन्ध में एक क्लब के द्वारा छपवाई गई थी । हालांकि यह विज्ञापन विवादास्पद भी रहा क्योंकि विज्ञापन की पक्तियां कुछ इस तरह थीं :-
“ व्हाइट हाउस के एक क्लब के लिए वेश्याओं की ज़रूरत है ”
इस विज्ञापन के साथ प्रकाशित चिन्ह (लोगो) भी अमेरीका के झण्डे से मिलता जुलता था, जिसमें सितारे और पटि्टयां बनी हुई थीं । इस लोगो को देखकर कुछ देर के लिए यह भ्रम पैदा हो रहा था कि क्या वाकई अमेरिकी प्रशासन की कोई शाखा न्यूजीलौण्ड में तो नहीं खुल गई जिसके किसी क्लब के द्वारा यह विज्ञापन छपवाया गया हो ।
लेकिन वास्तव में यह विज्ञापन न्यूज़ीलैण्ड की राजधानी ऑकलैण्ड में स्थित एक वेश्यालय के द्वारा छपवाया गया था जिसका नाम ‘ मोनिका ’ है तथा उसकी इमारत ‘ अमेरीकी व्हाइट हाउस ’ से मिलती - जुलती है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि वेश्यावृत्ति में आज इतना खुलापन आ गया है कि जहां पहले इस पेशे को चोरी-छिपे अंजाम दिया जाता था वहीं आज खुलेआम विज्ञापन छप रहे हैं । परन्तु, यह उन देशों में सम्भव है जहां वेश्यावृति को कानूनी वैधता प्राप्त है । न्यूज़ीलैण्ड भी उन गिने-चुने देशों में है जहां का कानून इस पेशे को वैध मानता है । न्यूज़ीलैण्ड की संसद ने हाल ही में वेश्यावृत्ति को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिए कानून पारित किया है जिसके बाद लाइसेंसशुदा कोठे कुछ स्वास्थ और रोज़गार नियम - कानूनों के दायरे में रहकर यह पेशा चला सकते हैं । एक बात और गौर करने लायक है, पहले चाहे अपना देश हो या विदेश इस पेशे के मिडियेटर (दलाल) को कभी भी अच्छी नज़र से नहीं देखा गया और वे लोग भी नज़र बचाकर यह कार्य करते थे, लेकिन न्यूज़ीलैण्ड के इस क्लब के मालिक ब्रायन लेग्रोस अपने कारोबार चलाने के तरीके पर ज़रा भी शर्मिन्दा नहीं हैं।
लेग्रोस का कहना है कि “ उन्होंने इस कारोबार पर बहुत खर्च किया है और यह ‘ व्हाइट हाउस ’ उनके महल जैसा है ” ।
नीदरलैण्ड में भी वेश्यावृत्ति को मान्यता प्राप्त है तथा वहां रिहायशी इलाकों में भी वेश्यालय स्थित हैं ।
लन्दन में भी वेश्यावृत्ति उद्योग पूरी तरह पैर फैला चुका है । ब्रिटेन में वेश्यावृत्ति करने वाली महिलाओं और लड़कियों के कल्याण हेतु काम करने वाले एक संगठन ‘ पॉपी प्रोजेक्ट ’ के रिपोर्ट के अनुसार समूचे लन्दन में वेश्यावृत्ति एक उद्योग की तरह फैल गया है । इस संस्था ने शहर के 900 से अधिक वेश्यालयों को अपने सर्वेक्षण के दायरे में रखा । जिसमें पाया गया कि लन्दन में 77 विभिन्न संस्कृति से जुड़ी महिलाएं इस पेशे से जुड़ी हुई हैं। इनमें से ज्यादातर पूर्वी यूरोप और दक्षिण - पूर्व एशियाई देशों की हैं । इस रिपोर्ट की सहायक लेखिका हेलन एटकिंस ने लिखा है “ इनमें से भी ज्यादातर स्थानों पर बहुत छोटी आयु की लड़कियां भी अपनी सेवाएं देती हैं ”।
इस सम्बन्ध में खास बात यह है कि जिन वेश्यालयों का सर्वे किया गया उनमें ज्यादातर रिहायशी इलाकों में स्थित हैं। एक वेश्यालय से जुड़े सूत्रों के अनुसार वहां पहली बार आने वाले अपने ग्राहकों को अगली बार आने के लिए 50 फीसदी छूट का वाउचर दिया जाता है । लन्दन में इस पेशे में भी व्यावसायिकता इतनी हानी है कि विज्ञापन में सेक्स को लड़कियों, महिलाओं के लिए बेहद ग्लैमरस, सरल और मौज - मस्ती भरा कार्य बता कर उन्हें इस पेशे के तरफ आकर्षित करने की कोशिश होती है।
कुछ साल पहले रूस में बच्चियों से वेश्यावृति कराने वाले एक बड़े रैकेट का पर्दाफ़ाश हुआ था । कुछ जगहों पर तो खुलेआम वेश्याओं को जरूरत और उपभोग की वस्तु समझा जाने लगा है उदाहरण के तौर पर हम उस घटना को ले सकते हैं जब 2004 में एथेंस ओलम्पिक खेलों से पहले, एथेंस के नगर परिषद ने खेलों के दौरान मांग पूरी करने के लिए ज्यादा से ज्यादा वेश्यालयों को परमिट देने का अनुरोध किया था ।
हालांकि इसका जबरदस्त विरोध शक्तिशाली यूनानी ‘ आर्थोडॉक्स चर्च ’ के द्वारा किया गया था । चर्च का आरोप था कि एथेंस के अधिकारियों द्वारा ओलम्पिक के बहाने सेक्स पर्यटन को वढ़ावा देने की कोशिश हो रही है । यद्यपि एथेंस में वेश्यालयों को कानूनी वैद्यता प्राप्त है और इसी आधार पर एथेंस के मेअर दोरा बाकोईयनिस ने बचाव करते हुए कहा कि “ वे सिर्फ ग़ैर - क़ानूनी वेश्यालयों को लाइसेंस के लिए आवेदन करने को कह रही थीं, ताकि उन्हें नियमित करा दिया जाए ”।
Friday, April 9, 2010
कुछ कहती है तस्वीरें-2
Wednesday, April 7, 2010
ज़मीर
कि एकाएक अनहद से आवाज आयी,
तुम कौन हो?
मैं हड़बड़ाया
इधर-उधर देखा,
कोई नज़र नहीं आया,
फिर मैंने हिम्मत करके पूछा,
भाई तुम कौन हो,
क्या जानना चाहते हो?
फिर आवाज आई
तुम कौन हो?
कहां हो और पहले बताओ?
मैं
सहमा डरा हुआ
अपना परिचय बताया-
मैं इक्कीसवी सदी का प्रकृति का मानव हूँ|
फिर आवाज आई- "अपना पूरा परिचय बताओ?
फिर मैंने आगे बोला-
मैं मनु एवं सतरुपा का वशंज हूँ
मेरा शरीर खून,
मांस-हड्डी का बना है,
मैं मानव हूँ,
सोच समझ बुद्धि में सबसे महान हूँ,
बड़े-बड़े काम, अविष्कार किये है
मैंने,
फिर आवाज आई-
तुम कौन हो
अब क्या कर रहे हो?
डरा-सहमा चुप रहा मैं'
फिर आवाज आई-
बोलो-बोलो तुम कौन हो?
फिर सहम कर बोला-
मैं अतिताइयों से डरा,
अपने पथ से भटका,
असहाय मानव हूँ
तब उसका चेहरा खिलखिलाया और बोला-
अब ठीक बोला|
फिर हमारा जमीर जागा,
मैं दौड़ा,
उठा भागा और आवाज लगाई
देखो-देखो ये आया है अतिताई-
फिर खींचकर एक तमाचा मारा,
अतिताई हो गया धरासायी|
फिर हमने मुस्कराया,
अपना पीठ थपथपया,
भरोसे को जगाया
तभी हमने आंतक को भगाया|
- सुषमा सिंह
Tuesday, March 23, 2010
सेक्सवर्करों की वैश्विक एवं राष्ट्रीय स्थिति

सेक्स की कुंठा से भी महिलाएं इस पेशे में आती है। इस बीमारी को ‘निम्फोमेनिया’ कहते हैं । ऐसी महिलाएं पैसा तो नहीं लेती है, लेकिन यह भी अनैतिक ही है । सेक्स कारोबार में इनका प्रतिशत सिर्फ आठ है। शारीरिक सुख और पैसा सबसे ऊपर हो गए हैं। आज जिसके पास पैसा नहीं है उसके पास लोगों की निगाह में कुछ भी नहीं है । पैसे में ही मान-सम्मान, इज्जत और सारा सुख निहित मान लिया गया है । एक दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि शहरों की आबादी जिस तरह से बढ रही है उसमें देश के एक छोर से दूसरे छोर के लोग आसपास रहते हुए भी एक -दूसरे से घुल-मिल नहीं पाते हैं । यही कारण है कि गावों की अपेक्षा शहरों में सेक्स रैकेट ज्यादा हैं ।
अतिमहात्त्वाकांक्षा तथा गरीबी से लेकर नैतिक मूल्यों के पतन तक अनेक ऐसे कारण मिलते है जिससे समाज में सेक्स रैकेट या वेश्यावृत्ति जैसी चीजें लगातार अपना पांव फैला रही हैं। महिलाओं तथा युवा लड़कियों में खासतौर पर आर्थिक बदहाली की वजह से ही यह कुरीति पनपती है । यद्यपि वेश्याओं की कुल संख्या का पता लगाना यर्थाथ रूप से सम्भव नहीं है लेकिन एक हालिया आकलन में जानकारी दी गई है कि सिर्फ भारत में लगभग 30 लाख से अधिक महिला यौनकर्मी हैं । इन यौनकर्मियों में खासतौर पर 15 से 35 वर्ष के आयु वर्ग की महिलाएं एवं लड़कियां शामिल हैं । इस आयु वर्ग से 90 प्रतिशत यौनकर्मी हैं । पैसा कमाने की इच्छा तथा यौन क्रिया के प्रति उत्सुकता के अतिरिक्त विभिन्न सेवा क्षेत्र में अतिथि सत्कार करने की परम्परा का उदय भी इस पेशे को प्रोत्साहित करती रही है।
(क्रमशः)
Wednesday, March 10, 2010
भारत में वेश्यावृत्तिः कालक्रम और कारण


मध्ययुग में सामतंवाद की प्रगति के साथ इनका अलग-अलग वर्ग बनता चला गया । इसमें से कुछ समूह ऐसे थे जिनकी रूचि कलाप्रियता के साथ कामवासना में बढ़ने लगी । परन्तु कला से सम्बन्धित लोगों के साथ यौनसम्बन्ध सीमित और संयत थे । कालान्तर में नृत्यकला, संगीतकला एवं सीमित यौनसंबन्ध द्वारा जीविकोपार्जन में असमर्थ इन महिलाओं को बाध्य होकर जीविका हेतु लज्जा तथा संकोच को त्याग कर वेश्यावृति के दलदल में उतरना पड़ा ।
वेश्यावृति को बढ़ावा देने में आज आर्थिक कारण प्रमुख भूमिका निभा रहा है । चुंकि रोजगार पाना आज के समय में अत्यन्त श्रमसाध्य कार्य हैं, साथ ही योग्यता के अभाव में या कम योग्य होने पर पैसे भी कम प्राप्त होते हैं, जबकि इस पेशे में पैसे की अधिकता होने के कारण, अधिक विलासितापुर्ण जीवन जीने की इच्छा रखने वाली युवतियां आसानी से स्वत: या दलालों के झांसे में आकर, इस दलदल में फंस जाती है । उत्तरप्रदेश के कानपुर शहर के एक अध्ययन के अनुसार लगभग 65 प्रतिशत वेश्याएं आर्थिक कारण से ही इस पेशे को अपनाती है ।
हालांकि समाज के लिए अभिशाप माने जाने वाले इस पेशे के पिछे सिर्फ आर्थिक कारण न होकर अन्य विभिन्न कारण भी हैं । इस पेशे को अभिशाप इसलिये माना जाता है कि अनेक ऐसे उदाहरण समाज में मिल जाते हैं जो वेश्याओं या सेक्सवर्करों के पीछे अपना ऐश्वर्य, समय, पारिवारिक सुख, मानसिक शान्ति या हम यूं कहें कि अपना सर्वस्व लुटा बैठते हैं । परिवार की संपति धीरे-धीरे सेक्सवर्करों के पीछे बर्बाद कर दिये जाते हैं । परिवार के सदस्यों को खाने के लाले पड जाते हैं । अभावों के बीच उनका जीना दुस्वार हो जाता है । ऐसे पुरुषों के पत्नी, माता-पिता तथा अन्य सदस्यों को भी सामाजिक प्रतारणा झेलनी पड़ती है । धन के अभाव में बच्चों की परवरिश सही ढंग से नहीं हो पाती, परिवार का विकास रूक जाता है । सीधे शब्दों में कहा जाए तो पूरा का पूरा परिवार बिखर जाता है और समाज की प्राथमिक इकाई परिवार के विघटन का दुष्प्रभाव सामाजिक संगठन पर भी पड़ता है ।
सामाजिक कारण भी एक प्रमुख कारण है । समाज ने अपनी मान्यताओं, रूढ़ियों और त्रुटिपूर्ण नीतियों द्वारा इस समस्या को और जटिल बना दिया है। विवाह संस्कार के कठोर नियम, दहेजप्रथा, विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध, सामान्य चारित्रिक भूल के लिए सामाजिक बहिश्कार, छुआ छुत, आवश्यकतानुसार तलाक प्रथा का प्रचलन न होना आदि अनेक कारण सेक्सवर्करों की संख्या तथा उनके पेशे को बढ़ावा देने में सहायक होते हैं । इस पेशे को त्यागने के पश्चात समाज उन्हें सहज रूप में स्वीकार नहीं करता । ऐसी स्त्रियों के लिए हुआ करती हैं ।
युवतियों द्वारा यौनसम्बन्ध को लेकर उन्मुक्तता की इच्छा रखना, विवाहित पुरुषों द्वारा सेक्सवर्करों का इस्तेमाल तथा विवाहेत्तर सम्बन्ध एवं विवाहित स्त्रियों के विवाहेत्तर सम्बन्ध भी इसका कारण है । अन्य कारणों में चरित्रहीन माता-पिता अथवा साथियों का सम्पर्क, घरेलु हिंसा तथा अन्य जगहों पर शारीरिक उत्पिड़न, अश्लील साहित्य, वासनात्मक मनोविनोद और चलचित्रों में कामोत्तेजक प्रसंगों की अधिकता ने भी सेक्सवर्करों के पेशे को बढ़ावा दिया है।
अगर हम राजस्थान का उदाहरण लें तो अभिलेखिय एवं साहित्यिक स्त्रोतों से ज्ञात होता कि प्राचीन काल से प्रचलित दास-दासी प्रथा, 19 वीं सदी के अन्त तक जारी रही । दास - दासी प्रथा के कारण स्त्रियों और लड़कियों की खरीद - फरोख्त प्रचलित थी । दास - दासियों को विवाह में दहेज के साथ देने के अतिरिक्त कुछ सामन्त या सम्पन्न लोग स्त्रियों को रखैल के रूप में रखने के लिए, अपनी काम - पिपासा तृप्त करने के लिए युवा लड़कियों से अनैतिक पेशा करवाने के लिए ‘मेवाड़’ में स्त्रियों का क्रय - विक्रय भी होता था। राज्य के बाहर से भी स्त्रियां खरीदकर लायी जाती थीं। ‘मेवाड़’ में महाराणा शंभूसिंह के शासन काल में पोलीटिकल एजेंट कर्नल ईडन द्वारा इस प्रथा को गैर कानुनी घोषित कर दिया गया । इस प्रकार 19 वीं शताब्दी के अन्त तक स्त्रियों की क्रय-विक्रय प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी थी । परन्तु समाज में बहु-विवाह, रखैल एवं क्रय-विक्रय की प्राचीन प्रथा ने वेश्यावृति को प्रोत्साहित किया। अनेक वेश्याएं भी छोटी उम्र की लड़कियों को खरीद लेती थीं और उनके युवा होने पर उससे वेश्यावृति करवाती थीं । संगीत और नृत्य में निपुण प्रमुख वेश्याओं को राजकीय संरक्षण प्रदान किया जाता था और उन्हें राजकोश से नियमित धन दिया जाता था । अनेक वेश्याएं मन्दिरों में नृत्य-संगित किया करती थी और बदले में उन्हें पुरस्कार आदि मिलता था । सामान्य वेश्याएं नृत्य संगित तथा यौन - व्यापार द्वारा अपना जीवन निर्वाह करती थीं । 20 वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक वेश्यावृति व यौन - व्यापार को समाप्त करने अथवा नियन्त्रित करने की दिशा में भेवाड़ या ब्रिटिश सरकार की तरफ से कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया गया था ।
सिर्फ मेवाड़ या राजस्थान ही उदाहरण नहीं हैं , इतिहास में ऐसे अनेक ठिकाने रहे है जो वेश्यावृति या सेक्सवर्करों के अड्डे के रूप में जाने जाते रहे हैं चाहे वह वाराणसी का ‘दालमण्डी´ हो या सहारणपुर का ‘नक्कासा बाजार’।
बिहार में मुजफ्फरपुर का ‘चतुर्भज स्थान’ और सीतामढ़ी का ‘बोटा टोला’ इसके लिए जाना जाता रहा है । ठीक उसी तरह कोलकत्ता का सोनागाछी, मुम्बई का कमाठीपूरा, दिल्ली का ‘जी.बी.रोड’, ग्वालियर का ‘रेशमपूरा’ तथा पूणे का ‘बुधवार पेठ’ भी इसके प्रमुख केन्द्र रहे हैं ।
Wednesday, February 24, 2010
गरीब – अमीर
फिर भी अमीरों की ठाठ सजा |
कहीं सूखी रोटी पे आफत |
कहीं मिष्ठानों की बरसात |
कहीं पट की सामर्थ नहीं |
कहीं पट न सुहात |
कहीं रही कल्पना भी फिकी |
कहीं हकीकत पे रंग चढा |
कहीं जीवन खाली पड़ा |
कहीं उमंग ही उमंग भरा |
देखो गरीबों की दीन-दसा |
फिर भी अमीरों की ठाठ सजा |
- Kushboo Sinha
9 th std.
D.A.V. Public School,
Pupri, Sitamarhi
Friday, February 19, 2010
जीवन का अफ़साना
मुश्किल है यहाँ से जी के जाना
दिन अंजाना , रात परवाना
फिर कैसा तू राही दिवाना ?
मिट गयी है जिन्दगी जीने की हसरत
करनी पड़ती यहाँ लाखों कसरत
दुखः भी आती तो देकर दस्तक
फिर कैसा ये चाहत बेगाना ?
है कैसी ये फितरत तेरी
या है मेरी नज़र टेढी
देख लीला दुनिया की !
उबकर मैंने आँखें बंद कर ली
है कैसा ये तेरा हरजाना ?
कहीं सिर्फ गम-मुसीबतें बर्षाना
तो कहीं खुशियाँ बनकर उमर जाना
फिर कैसा ये रिस्ता पुराना ?
है तो राह पार कर जाना
पड़ इसमें बार-बार कंकर-पत्थर का आना
और खुद को दुर्भाग्यशाली ठहराना
फिर कैसा तू राही दिवाना ?
- Kushboo Sinha
9 th std.
D.A.V. Public School,
Pupri,Sitamarhi
Wednesday, February 17, 2010
मंडली एक, बच्चों की....
किरण धूप की निकलती है
मंडली एक, बच्चों की
कुड़ा बिछने निकलती है
मस्त-मौला ये अपने कामों में
शहर के गली-गली भटकती है
हर किसी की नज़र इनपे परती है
मगर, उन्हें यह तनीक भी नहीं अखरती है
जब इन बच्चों की आंखे उनपे पड़ती है
जिनके कदम बस्ता लेकर
विद्यालय की ओर बढती है
ख्वाबों में ये डूब जाते हैं
और किसी से पूछ भी नहीं पाते हैं
कि हम स्कूल क्यों नहीं जाते हैं ?
-Kushboo Sinha
9 th std.
D.A.V. Public School,
Pupri,Sitamarhi