Friday, December 5, 2008

क्षेत्रीयता बनाम छद्म राजनीति

विवेक विश्वासः
एक ही सिक्के के अलग-अलग पहलू हैं - नितीश,लालू,शरद,रामविलास
जीवन के 23 बसंत जरुर बीत गए पर शायद होश भी नहीं संभाला था तभी से भाषा के नाम पर हिन्दी भाषियों के साथ बदसलुकि, मारपिट और हत्या की सुर्खियाँ विभिन्न समाचार माध्यमों की सहायता से कानों और आँखों से होते हुए मन-मस्तिष्क को झकझोरती रही।
पहले और अब ऐसी घटित घटनाओं के चरित्र में बदलाव जरुर आया है, परन्तु आज भी ऐसी तुच्छ घटनाएँ सिर्फ राजनैतिक हित साधने के उदेश्य से ही प्रायोजित होती है। निश्चित रुप से यह घिनौनी राजनीति एवं कमजोर राजनैतिक इच्छाशक्ति का परिणाम है। इसके लिए न सिर्फ वहाँ के राजनेता एवं सरकार जिम्मेदार है जिस राज्य में इन घटनाओं को अन्जाम दिया जा रहा है,बल्कि उस राज्य के राजनेता एवं सरकार भी जिम्मेदार हैं जहाँ की जनता इससे प्रभावित हो रही है। कुछ समय पहले महाराष्ट्र में रेलवे के परिक्षार्थियों के साथ हुए मारपीट की घटना में से एक की मौत हो जाने पर छात्रों के भीड़ ने बिहार पहुँचकर, उग्र रुप ले लिया और सम्पूर्ण बिहार में छात्रों के समर्थन में विरोध प्रदर्शन होने लगे। तब जाकर कहीं बिहार की राजनीति के योद्घाओं- नितीश, लालू, शरद, रामविलास आदी ने करवट बदली.
वर्तमान राजनीति के इन महान् नेताओं की नींद शायद अभी भी नहीं खुलती, अगर इन्हें चुनावी सवेरे की लालिमा न नजर आ रही होती। उस समय इनकी निंद को क्या हुआ था जब कई वर्ष पहले मुम्बई और गुवाहाटी में ऐसी घटनाओं को अन्जाम दिया गया था। जब सन् 2007 के शुरुआत में सिकन्दराबाद एवं विजयवाड़ा के बीच रेलवे की परिक्षा देकर देकर लौट रहे छात्रों मारा-पिटा गया तथा उनके टिकट फाड़ दिए एवं सामानों को ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया.
हलाँकि क्षेत्रियता के नाम पर संविधान को धता बताते हुए, ऐसी ओछी राजनीति करने वाले किसी भी व्यक्ति या संस्था को न पहले और न आज,कभी भी सही नहीं ठहराया जा सकता। अगर समय रहते सही कदम उठाए गए होते तो 'क्षेत्रीयता' नाम का यह दानव इतना विकराल रुप धारण करता नजर नहीं आता।
स्थिती तब और भी शर्मनाक होती नजर आती है जब सम्पूर्ण देश या कम-से-कम प्रभावित राज्य के राजनेता सामूहिक प्रयास से इसका हल निकालने की बजाए इस मुद्दे को भुनाने की कोशिश करने लगते हैं।
लोकजनशक्ति पार्टी के प्रमुख रामविलास पासवान शब्दबाणों के जरिए राज ठाकरे को छलनी करने तथा हिन्दी भाषी क्षेत्र(विशेषकर बिहार) में लोगों के दिलों को अनावश्यक ठंडक पहुँचाने की कोशिश करते हैं तो दूसरी ओर 'जद यू' और 'राजद' इस्तिफे की घोषणा कर सुर्खियाँ बटोरने की।
इसमें भी एक मजेदार बात यह कि जब 'जद यू' के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव से यह पुछा जाता है कि क्या उनकी पार्टी के राज्यसभा सांसद भी इस्तीफा देंगे? श्री यादव ऐसे जवाब देते हैं जैसे वह किसी 'लाफ्टर चैलेंज' में हिस्सा ले रहे हों।आखिर उनके इस जवाब को किस रुप में देखा जाए कि -
"राज्यसभा सांसदों के इस्तीफे का कोई औचित्य नहीं बनता, क्योंकि वे जन प्रतिनिधि नहीं होते"।
क्या हमारे जिम्मेदार राजनेता इसका जवाब देने की कोशिश करेंगे कि आम जनता को इन अराजक स्थितियों से कब छुटकारा मिलेगा?
या, आम लोगों के जान-माल के एवज में अपनी राजनीतिक रोटीयाँ सेकते रहेंगे?
या फिर अन्य राज्यों से तंग आकर घर लौटती जनता में उन्हें अपना 'वोट बैंक' नजर आ रहा है?

Wednesday, October 29, 2008

चले गए दादा


-विवेक विश्वास
आखीरकार दादा चले गए । और इसी के साथ खत्म हो गई दादा की चमकदार क्रिकेटीय पारी । वह क्रिकेटीय पारी जिसने एक शानदार टेस्ट मैच की तरह कई उतार -चढ़ाव देखे । इस उतार -चढ़ाव भरे कैरियर में दादा और विवादों का चोली -दामन का साथ रहा है । विवादों के साथ उनका नाम उनकी पहली ही सीरिज से जुड़ गया था , जो कि आखिर तक चला। आस्ट्रेलिया के साथ टेस्ट सीरिज के लिए उनके चयन के साथ ही यह खबर आने लगी थी कि यह चयन एक ´डील` के तहत हुआ है।

समकालीन आस्ट्रेलियाई क्रिकेट कप्तान स्टीव वॉ के साथ हुए नोक-झोंक तथा लॉडर्स की बाल्कोनी में फहराये टी-शर्ट को लेकर पश्चमी मीडिया एवं वहाँ के क्रिकेटरों ने उन्हें खलनायक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । जितना जी चाहा उतना आलोचना उस बात के लिए करते रहे, जो वहां के क्रिकेटर बहुत पहले से करते आ रहे थे।

हद तो तब हो गई, जब भारतीय मीडिया एवं पूर्व क्रिकेटर भी उस भेड़चाल में शामिल होकर नैतिकता और भारतीय परम्परा की दुहाई देने लगे। महाभारत के समय श्रीकृश्ण के द्वारा कही गई उस बात को भूल गए जिसमें उन्होने कहा था कि गलत करने वाले के साथ गलत करने में कोई अधर्म नहीं है।

परन्तु दादा को हमेशा एक ऐसे जुझारू खिलाड़ी के रूप में याद किया जायेगा जिसने कभी हार नहीं मानी, जिसने टीम के हर खिलाड़ी को एक सूत्र में बांधने का काम किया जिसने खिलाड़ियों में जीत की भूख पैदा की। विपक्षी टीम को उसी के अन्दाज में जवाब देना तथा बल्लेबाजों को विपक्षी गेंदबाजों की आँखों में आँख डालना सिखाया।

मोहिन्दर अमरनाथ के बाद सौरव गांगुली ही "रियल कमबैक" मैन रहे।
इस तरह की कई और घटनाएं घटी और दादा के साथ विवादों की फेहरिस्त में जुड़ती चली गई। वर्तमान समय में विवाद हर बड़ी चीज का पर्यायवाची शब्द बन गया है। बल्लेबाजी में जहॉ इस खब्बू बल्लेबाज को ऑफ साइड का भगवान कहा गया वहीं गेंदबाजी में भी पार्टटाईमर के रूप में टीम को सहयोग दिया। एकदिवसीय मैंचों में सौरव के नाम 100 विकेट है। यह रिकॉर्ड किसी भी खिलाड़ी के गेंदबाजी छमता का गवाह हो सकता है। खास तौर पर तब जब उसे पार्टटाईमर कहा जाता हो। उनकी कप्तानी क्षमता का अन्दाजा अजय जडेजा के उस बयान से लगाया जा सकता है, जसमें जडेजा ने कहा था कि कप्तानी के लिए सौरव को पचास की आयु में भी बुलाया जा सकता है।
जब गांगुली सन्यास की घोषणा कर चुके हैं तब भी यह नहीं कहा जा सकता कि क्रिकेट उनका सबसे प्रिय खेल था क्योंकि उनका पहला क्रेज फुटबाल के प्रति रहा है और एक बार वह कह भी चुके हैं कि क्रिकेट में वह अपने कैरियर को ध्यान में रखकर आए थे। चूँकि अपने जीवन के बेहतरीन क्षणों में सौरव ने क्रिकेट को जिया है, इसलिए एक खिलाड़ी के रूप में न सही किसी अन्य रूप में वह राष्ट्रीय टीम को अपनी सेवाएँ दे सकते हैं। वैसे दादा के गगनचुंबी छक्कों की तलाश में क्रिकेट प्रेमियों की ऑखें हमेशा दादा को क्रिकेट मैदान पर ढूंढती रहेंगी।

Monday, May 19, 2008

क्रिकेट का लौह पुरुषः सौरव गांगुली

विवेक विश्वास :
एक ऐसा सख्स जिसमें क्रिकेट का जुनून कुट-कुट कर भरा है.बाहों पर बंधे पैड पर लगा तिरंगा इस बात की ताकिद देता है कि देश के लिए खेलने के नाम मात्र से वह कितना रोमांचित रहता है.
शख्सीयत ऐसी जो अपने शुरुआती दिनों से ही बड़े-से-बड़े नामों को खुद पर हावी नहीं होने दिया.जिसके गगनचुंभी छक्के क्रिकेटप्रेमियों को क्रिकेट मैदान एवं टेलीविजन स्क्रिन तक खिंच लाती है,तो दुसरी ओर कवर ड्राइव के रुप में लगाए गए शानदार चौके को उस खिलाड़ी का सिंगनेचर शौट कहा जाता है.

निश्चित रुप से हम उस खिलड़ी की बात कर रहे हैं जो क्रिकेट के मैदान पर अक्सर अपने बल्ले से दादागिरी दिखाते नजर आते हैं, कोई उन्हे प्यार से "बंगाल टाईगर" तो कोई "प्रिन्स औफ कोलकाता" कहकर बुलाता है तो कोई "महाराज" और "दादा" कहता है.

अपनी पहली ही सिरिज के बाद चार साल के लिए टीम से बाहर हुए इस खिलाड़ी को जब लोग भुलने लगते हैं तभी टीम में उनकी वापसी होती है और लौर्डस टेस्ट सहीत लगातार दो मैचों में शतक जड़कर अपनी शानदार उपस्थिती दर्ज कराते हैं.इसके बाद इस खिलाड़ी ने कभी पिछे मुर कर नहीं देखा.क्रिकेट के दोनों संस्करणों में निरन्तर अच्छे पदर्शन का इनाम कप्तानी की ताजपोशी के रुप में मिला.इस नई जिम्मेदारी को ग्रहण कर 'दादा'ने भारतीय क्रिकेट टीम का कायाकल्प ही बदल दिया.टीम में जीत की भूख पैदा की.फिर तो इस महान कप्तान ने भारतीय क्रिकेट इतिहास में एक नई कहानी ही गढ दी.यह कहानी थी सफलता की,एक नए तेवर की.

पर सफलताओं के बीच समय ने एक बार फिर पलटा खाया और 'दादा' को न सिर्फ कप्तानी गवाँनी पड़ी बल्कि टीम से स्थान भी गवाँ बैठे.

पर यह धुरंधर हार कहाँ मानने वाला था.जो हार मान गया वह 'सौरभ गांगुली' नहीं. लगभग डेढ सालों के अन्तराल पर एक बार फिर इनकी धमाकेदार वापसी होती है और भारतीय क्रिकेट पहले से कहीं बेहतर और तरोताजा 'सौरभ गांगुली' को पाता है.उनकी वापसी को दो साल बीतने को है और हमें उस महान खिलाड़ी की एक से बढकर एक जीवट पारियाँ देखने को मिल रही है.हालाँकि वर्तमान समय में चयनकर्ताओं ने युवापिढी की दुहाई देकर उन्हे एकदिवसीय टीम से बाहर कर दिया है,परन्तु दिग्गजों की फेहरिस्त में उन्हे हमेशा अहम स्थान दिया जाएगा.
ऐसे में सौरभ गांगुली को "क्रिकेट का लौह पुरुष" कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.

जगत जननी सीता की पावन धरतीःसीतामढी


- विवेक विश्वास

(Punaura-Birth Place of Sita mata)
भारतीय गणराज्य के बिहार प्रान्त के उत्तरी सीमा पर बसा है सीतामढी.इस जिले की उतरी सीमा,पड़ोसी देश नेपाल की सीमा से जुड़ी हुई है.
ऐसी मान्यता हैं कि जिला मुख्यालय से पाँच किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में पुनौरा नामक स्थान पर जगत जननी सीता का जन्म हुआ था। जहाँ आज श्री राम और सीता का भव्य मंदिर है,जो
श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता है. मंदीर में स्थापित श्री के मूर्ति की पूजा रोज मठाधीश के द्वारा की जाती है.
पौराणिक कथाओं के अनुसार सीतामढी कभी न्यायप्रिय राजा जनक के राज्य का हिस्सा हुआ करता था. उनके शासनकाल में एक समय ऐसा भी आया जब प्राणदायीनी जल के बुंद-बुंद के लिए लोग तरस रहे थे.इन्द्रदेव की नाराजगी का यह आलम था कि राजा जनक के पूरे राज्य में अन्न के लाले परे थे.तभी यह भविष्यवाणी हुई कि राज्य के पालन हार राजा जनक यदि स्वयं पूरे राज्य में हल चलाते हैं तब आसमान भी बदहाल जनता के दर्द पर रो परेगी.
अब राजा जनक के लिए एक तरफ था राजसी ठाठ-बाठ तो दुसरी तरफ उनकी भूखी-प्यासी जनता.परिस्थिती ऐसी थी कि जनकपूर-नरेश ने हल थामना ज्यादा बेहतर समझा.जब जनकजी हल जोतते हुए सीतामढी के पुनौरा पहुँचे तो हल लगने के कारण धरती में गड़ा एक घड़ा फुटा और उस घड़े से सीताजी अवतरीत हुईं.
सीताजी का जन्म होना था कि आसमान भी खुद को रोक न सका और बारिस की बुंदें झरने लगी.इन बारिस की बुंदों से जगत जननी सीता को बचाने के लिए राजा जनक जगत जननी को लेकर एक मड़ई(झोपड़ी) की तरफ भागे.यह मड़ई अब सीतामड़ई अर्थात सीता की झोपड़ी के नाम से जाना जाने लगा.किंवदती है कि यही नाम कालान्तर में अपभ्रंश होकर सीतामढी हो गया.
श्रद्धालु पुनौराधाम में स्थित मंदिर के साथ-साथ,सीतामढी नगर में स्थित जानकी मंदिर के दर्शन करना भी नहीं भुलते.
जहाँ सीतामढी नगर से लगभग 40 किलोमीटर की दुरी पर दरभंगा की तरफ जाने वाली रेलवे लाइन के समीप रामायण से जुड़ी अहिल्या स्थान है तो दुसरी तरफ लगभग 60 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में नेपाल की सीमा में राजा जनक की राजधानी जनकपुर स्थित है.

Saturday, May 17, 2008

मनमोहक,दर्शनीय-भेड़ाघाट(घुआंधार जलप्रपात)


विवेक विश्वास:
मध्य प्रदेश में जबलपुर शहर के बगल में नर्मदा नदी के गोद में बसा एक जगह जहाँ घुमती सड़कें उचाइयों की तरफ बढ रही थी,पेड़ों से पटी झुरमुठ के पिछे से झांकती झाड़ियाँ,जो उस जगह के लिए किसी नवविवाहिता के द्वारा प्रयुक्त श्रिंगार प्रशाधन से कम न थी.
चारों तरफ फैली बड़ी-बड़ी चट्टानें खुद में अटल एवं आभायुक्त चरित्र को समेटे हुए थी.उन चरित्रों को उभारनें का कार्य वहाँ के शिल्पकार कर रहे थे,जो उनकी जीविका का साधन एवं आगन्तुकों के आकर्षण के केन्द्र भी थे.कलाक्रितियाँ ऐसी जो बरबस ही आगन्तुकों की भीड़ को अपनी ओर खींच रही थी.

आगे बढने पर नीचे उतरते पथरीले -संकड़े रास्ते,जहाँ सुरज की किरणें चारों तरफ व्याप्त संगमरमर के वास्तविक चरित्र के प्रदर्शन में अपना योगदान दे रही थी.नदजल की कलकल ध्वनी जो उँचाई से गिरने पर कर्णप्रिय संगित के रुप में हमारे कानों तक पहुँच रही थी तथा जल की बुंदे उँचाई से गिरने पर फुहरों में परिवर्तित हो कपासी प्रतिरुप प्रदर्शित कर रही थी.
नर्मदा एवं बैण-गंगा की सम्मिलित तेज धारा एवं गहरी खाई,जो हमारे दिल की धड़कनों को तेज कर रही थी और अनजान खतरे से आगाह भी.
कुल मिलाकर एक ऐसा मनोरम जगह जो हमारे मन को आह्लादित एवं नयनों को त्रिप्ती की परकाष्ठा तक ले जा रहा था.

Tuesday, March 4, 2008

ये क्या हो रहा है?

विवेक विश्वास :
खबर ऐसी की हर प्रबुद्ध व्यक्ति का मन-मस्तिष्क झकझोड़ कर रख दे. शब्दों से गढी गई तस्विर ऐसी जो हमारी अन्तरात्मा तक को हिला दे.हमें सोंचने को मजबुर कर दे कि आखिर ये हो क्या रहा है?क्या दिन-ब-दिन नासूर बनते इस घाव से हम निजात नहीं पा सकते?क्या धारावाहिकों की तरह लगातार चल रहे इस सिलसिले को हम रोक नहीं सकते?

जी हाँ हम बात कर रहे हैं आए दिन अखबारों एवं टेलीविजन चैनलों कि सुर्खी बनती बलात्कार की घटनाओं की.आकड़े बता रहे हैं कि आज हमारी केंद्रिय राजधानी दिल्ली तक इस नजरिये से सुरक्षित नहीं है.स्थिती तब और खतरनाक हो जाती है जब समाज के पहरुये ही बलात्कार जैसी घिनौने घटना को अंजाम देने लगते हैं,वह भी ऐसे जगह जहाँ एक नहीं दो-दो राज्यों के राजभवन स्थित है(चंडिगढ में).हलाँकि उस घटना की जाँच चल रही है.परन्तु ऐसी घटनाओं को जिस विधवत्स तरिके से खासकर टेलीविजन चैनलों पर परोसा जाता है उसका सबसे बुड़ा प्रभाव हमारी युवा पिढी एवं बच्चे झेल रहे हैं.इस तरह की घटनाओं के लिये टेलीविजन चैनलों पर दिखलाए जाने वाले अश्लिल विज्ञापन भी कम जिम्मेदार नहीं हैं,जो कच्ची उम्र के बच्चों को भी समय से पहले व्यस्क बना देते हैं.

इस तरह की घटना के बानगी के रुप में हम शनिवार 01 मार्च 2008 को घटित घटना को ले सकते हैं. जिसमें एक नौ वर्षिया बच्ची जो दूसरी कक्षा की छत्रा थी के साथ एक ही स्कूल के आठ से 14 वर्ष आयुवर्ग के बच्चे ने सामुहिक बलात्कार किया.हद तो तब हो जाती है जब 45 और 50 वर्ष के अधेड़ द्वारा 10 और 12 वर्ष की बच्ची का बलात्कार की खबर आती है.

जिस तरह हमारे समाज में नैतिकता का स्तर रसातल को छुता जा रहा है वह हमारे समाज के लिये एक गंभिर चिन्तन का विषय है.इस तरह की घटनाओं के हम सिधे-सिधे टेलीविजन चैनलों को जिम्मेदार ठहराकर अपनी जिम्मेदारिओं से मुक्त नहीं हो सकते. हमें अपने समाज को इसके अनजान खतरों से बचनें के लिए मशिनी मानव बनने की बजाय बच्चों को संस्कार एवं नैतिकता का पाठ पढाकर उसके बौद्धिक चेतना के स्तर को उपर उठाने की जरुरत है.


Thursday, February 28, 2008

धारा के विरुद्ध!

बहुत बह लिये
अनुकुल-
धारा के होकर
कई चोटें दिए-
लहरों ने पीठ पर
मत कर और सहन
चल उठ
एक नाव चला-
धारा के विरुद्ध!

नया करने को
काफी है-
अपना साहस और खुद पर यकीन
तो बस-कमर कस
पतवार उठा
लहर-लहर में घुस
कतरे-कतरे को कर शुद्ध
चल उठ
एक नाव चला-
धारा के विरुद्ध!
संघर्ष कर
लहरों के थपेड़े खा
चट्टानों से टकरा
कितना धकेलेगी लहर
भर बाजुओं में बल
जोर आजमा
रख जान हथेली पर

आगे बढता चल
गम नहीं
जो
जान चली जाए
मत हो क्षुब्ध
चल उठ
एक नाव चला-
धारा के विरुद्ध!

संभव है शोर हो
अंगुलियाँ उठे
बहिस्क्रित कर दिये जाओ
और तुम
अकेले पड़ जाओ
संभव है-
तुम सराहे जाओ
तुम्हारी जय-जयकार हो
या
कोई हाथ बँटाने वाला मिल जाये
फिर फिकर् क्या?
कि जड़ किनारा गालियाँ दे
या
आँखे तरेरे हो क्रुद्ध
चल उठ
एक नाव चला-
धारा के विरुद्ध!
-मनीष
(छात्र-माहात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रिय हिन्दी विश्वविद्यालय)

Monday, February 25, 2008

WELCOME

मेरे नीजी ब्लॉग पर आपका स्वागत है.