Sunday, March 8, 2015

बिहार में छटते दिख रहे हैं राजनैतिक उथल-पुथल के बादल

"दिल्ली में त ताबड़तोड़ वोट हो रहल हईं हो, बिहार के की चल रहल हईं?" कुछ इसी तरह के सवाल लोग जगह-जगह एक दूसरे से पूछते देखे गए थे, जब कुछ दिनों पहले बिहार के उपर राजनीतिक संकट के बादल छाए थे. देश भर की नजरें दिल्ली चुनाव पर जरूर टिकी रही परंतु इसी बीच बिहार का राजनीतिक पारा भी अपने चरम पर रहा.
हर पल राजनैतिक घटनाक्रम करवट ले रही थी.  राज्य भर में हर किसी की नीगाहें मीडिया पर टिकी हुई थीं कि राजनैतिक गलियारों से पता नहीं कब, कौन सी खबर छन कर बाहर आ जाए. समान्य दिनों में जैसे-तैसे एक अखबार पढ़ने वाले लोग भी कई-कई अखबारों के पन्ने पलट रहे थे. उस दौरान लोग अखबारों के बाद टेलीविजन चैनल के माध्यम से अपनी उत्सुकता कम करने में लगे रहे. परंतु समय बीतने के साथ-साथ लोगों की उत्सुकता घटने की बजाए बढ़ती ही जा रही थी।
कभी लग रहा था कि नीतीश-मांझी मुलाकात के बाद जद (यू) और सरकार दोनों ही मझधार से निकल जाएगी, तो कभी लगता था कि राष्ट्रिय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव कोई बीच का रास्ता सुझाएंगे, तो कभी लगता था कि साईकल पर सवार हो कर कोई आयातित आइडिया ही आ जाए. परंतु सब अनुमान धरे के धरे रह गए. जनता दल (यू), भारतीय जनता पार्टी और तत्कालिन सरकार के खेवनहार, भाजपा की नई उम्मीद तथा जदयू व नीतिश कुमार के गले की फांस जीतन राम मांझी अपना-अपना खेल खेलने में लगे हुए थे. परंतु संख्या बल के सामने सब को नतमस्तक होना पड़ा. मांझी जी को अपनी सरकार बचाने की कवायद को समय से पहले विराम देना पड़ा. भाजपा की स्थिति उस टीम की तरह हो गई, जब किसी टीम का भविष्य इस बात पर टिका होता है कि आगे दो अन्य टीमों के होने वाले मैच का विजेता कौन होगा और वह बहुप्रतिक्षित मैच बारीश से धुल जाता है. जनता दल परिवार के खेमे में विजयी मुस्कान फैल गई.
इन सब के बीच आम जनता के साथ-साथ सबसे बड़ी राहत भरी सांस ली बिहार के पत्रकार बंधुओं ने, जिनका बिहार में चल रहे राजनीतिक ड्रामें के चलते पिछले एक पखवारे से अधिक समय से जीना मुहाल हो गया था. कुछ का दर्द तो यह था कि उन्होंने हफ्ते भर से अपना मोजा तक नहीं बदला था. 
लेकिन अब होली का रंग तो उतरा ही चुका है, बिहार के राजनीतिक गलियारों में भी शांति छायी हुई है.

दावों और वादों के बीच बिहार में उच्च शिक्षा का परिदृश्य

बिहार में उच्च शिक्षा की स्थिति का आकलन इससे किया जा सकता है कि अभी भी कक्षा में विद्यार्थियों की 75% प्रतिशत उपस्थिति सिर्फ कागजों तक सीमित है। कुछ राज्यों में जहां स्नातक तक के छात्रों की उपस्थिति दर्ज करने के लिए बायोमीट्रीक सिस्टम लगा दिया गया है, वहीं बिहार में उच्च शिक्षा में सुधार की जो कवायद चल रही है उसमें सबसे बड़ी बाधा आधारभूत सुविधाओं की कमी के साथ-साथ कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भारी कमी है। अब सवाल यह है कि जब शिक्षक ही नहीं हैं तो विद्यार्थी कक्षा में उपस्थित रहकर भी आखिर किसके भरोसे आसमान में सुराख करेंगे? क्या डेस्क-बेंच, कुर्सी-टेबल और दिवारों के भरोसे? शिक्षकों की संख्या में कमी का आलम यह है कि बिहार के सौ से अधिक कॉलेजों के नैक एक्रेडेशन का आवेदन नैक के द्वारा सिर्फ इसलिए वापस कर दिया गया, क्योंकि उन कॉलेजों में एक्रेडेशन के लिए आवश्यक कम से कम 12 शिक्षकों की संंख्या भी नहीं थी। यह स्थिति सिर्फ सामान्य विषयों की ही नहीं है, बल्कि तकनीकी और व्यवसायिक विषयों का हाल भी एक जैसा ही है. तकनीकी और व्यवसायिक विषयों की कक्षाएं ज्यादातर ऐसे अतिथि शिक्षकों के भरोसे संचालित की जा रही हैं, जो यूजीसी द्वारा निर्धारित न्यूनतम अहर्ताएं भी नहीं रखते.  
इतना ही नहीं पूरे बिहार में एक-दो विश्वविद्यालयों को छोड़ दिया जाये तो किसी भी विश्वविद्यालय का अकादमिक सत्र सही समय पर नहीं चल रहा है।  शिक्षकों की संख्या तो कम है ही साथ ही कहीं भवन है तो बैठने की व्यव्स्था नहीं है, कहीं भवन और बैठने की व्यवस्था है तो प्रयोगशाला संसाधनों की कमी से जूझ रहा है तथा पुस्तकालयों में एक तो किताबों की संख्या बहुत कम है और जो हैं भी उन्हें उचित प्रबंधन के अभाव में दिमक चाट रहे हैं।
यहां सरकारी और प्रशासनिक रूप से चाहे जो भी वादे और दावे किए जा रहे हों या फिर जिन वजहों से इन दावों और वादों को अमली-जामा पहनाने में दिक्कत आ रही हो परंतु यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि इन दावों और वादों के बीच विद्यार्थियों के भविष्य को जरूर सूली पर लटकाया जा रहा है.

Thursday, February 19, 2015

भारतीय राजनीति के दाव-पेंच

कहते हैं वैश्विक स्तर पर राजनीतिक मूल्यों का क्षरण प्रथम विश्वयुद्ध के समय से ही शुरू हो गया था. इस संदर्भ में इतिहासकार रॉबर्ट वोल से लेकर नॉरमन कैनटर तथा एच.जी. वैल्स आदी ने लिखा भी है कि पहले विश्वयुद्ध के बाद सामाजिक संबंधों, पहनावे के साथ-साथ राजनैतिक मुल्यों में भी गिरावट दर्ज की गई.
वर्तमान दौर की भारतीय राजनीति के दाव-पेंच को देख कर यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि यह मूल्यों और विचारों को नये रूप में परिभाषित करने में लगा हुआ है. जो आप पार्टी अपना पहला चुनाव शिला दिक्षित और कांग्रेस पार्टी को पानी पी-पी कर कोसते हुये लड़ी थी, जरूरत पड़ने पर वही आप पार्टी उसी कांग्रेस के सहयोग से सरकार बना लेती है. महाराष्ट्र चुनाव में भाजपा द्वारा जिस पार्टी को ‘नेशनल करप्ट पार्टी’ करार दिया गया, जरूरत पड़ने पर उसी पार्टी के सहयोग से अपनी राजनीतिक रोटी सेकने लगी. अभी बिहार की राजनीतिक में भी रोज नये दाव-पेंच खेले जा रहे हैं, जिसमें न तो नैतिक मूल्यों के लिए कोई जगह है और न ही कोई विचार बचा है. हर पार्टी दूसरी पार्टी पर हॉर्स ट्रेडिंग का आरोप लगा रही है. जिस राजनीति का मूल उद्देश्य सेवा और जन सरोकार होना चाहिए उसका मूल उद्देश्य कुर्सी बना हुआ है. जद (यू) भाजपा पर बिहार को राजनीतिक अस्थिरता के दलदल में धकेलने का आरोप मढ़ रही है तो भाजपा का आरोप है कि सत्ता में बने रहने के लिये जद (यू) उसी पार्टी से हाथ मिला चुकी है जिसके विरोध में जनता ने उसे जनादेश दिया है.
पर इन सब आरोप-प्रत्यारोपों से आम जनता को क्या? वह तो खुद को उस द्रौपदी के स्थिति में पाकर खूद को ठगा महसूस कर करी है जिसके किस्मत में एक के द्वारा उसे जुआ में दाव पर लगाना लिखा है तो दूसरे के द्वारा उसका चीरहरण करना.