Thursday, November 24, 2011

क्या जनता को यह पूछने का हक नहीं कि क्यों दें हम सरकार को टैक्स?

महंगाई हर रोज नई ऊंचाई को छू रहा है। लोग यह असफल कोशिश करने लगे हैं पेट्रोल, डीजल, मिट्टी तेल, रसोई गैस आदि खरीदते समय उनकी कीमत्तों पर ध्यान नहीं दिया जाए। ज़्यादातर सड़के ऐसी हैं जिनपर आधे किलोमीटर का सफर बिना गड्ढे के पूरा नहीं किया जा सकता। महंगाई रूपी दानव अपना मुख इतना बड़ा कर चुकी है कि गरीबों के लिए नमक के साथ भी दो जून कि रोटी असंभव होता जा रहा है। ऐसा भी नहीं कि माध्यम वर्गीय परिवार दैत्याकार महंगाई के कहर से अछूता है। खाना तो इन्हें मिल रहा है, परंतु हरी सब्जियाँ इनके भी सिर्फ सपनों मे आती है। सब्जियों के नाम पर सुखी सब्जियों और चटनियों से ही काम चलाना पड़ रहा है।

उपरोक्त सारी परिस्थितियों के बावजूद सरकार कहती है कि हम इस पर लगातार नजर बनाए हुए हैं और सरकार की कोशिश है कि जल्द से जल्द इस पर काबू पाया जा सके। पर हमारी सरकार ध्यान तब दे ना जब उसे राजनीतिक दाव-पेंच से फुरसत मिले? फिर विचारणीय प्रश्न यह है कि आम जनता जिसकी कमर महंगाई के बोझ से पहले ही टूट चुकी है, वह टूटे हुए कमर के सहारे भारी-भरकम सरकारी टैक्स का बोझ कैसे ढोए और क्यों ढोए? सारी मुसीबत उसी आम जनता के सिर क्यों जो वैध तरीके से जीवन-यापन कर रही है। क्योंकि जीवन जीने के लिए अवैध तरीके अपनाने वालों के लिए तो न महंगाई का कोई मतलब है और न ही उन्हें सरकारी टैक्स भरने का कोई झंझट। फिर जिस देश में (कार्मिक राज्य मंत्री वी. नारायण सामी द्वारा बुधवार दिनांक 23-11-2011 को लोकसभा में दी गई जानकारी के अनुसार) पिछले तीन वर्षों में सीबीआई ने 450 प्रथम श्रेणी अधिकारी के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए हों,अभी 943 मामलों की जांच चल रही हो, 167 मामलों में जांच के लिए सरकार को लिखित प्रस्ताव मिला हो, उस देश में अवैध तरीके अपनाने वालों के डरने का क्या कारण हो सकता है, जब भ्रष्टाचार के 90 प्रतिशत से ज्यादा मामलों मे शिकायतकर्ताओं को न्याय नहीं मिल पाता है?

फिर सारा का सारा ठीकरा उस आम आदमी के सर ही क्यों जो हमारे संविधान, सरकार और व्यवस्था में विश्वास कायम रखते हुए, वैध तरीके से जीवन जीने की कोशिश कर रहा है? सालाना एक लाख साठ हजार से नीचे कमाने वालों की बात तो छोड़ ही दें, जैसे ही कोई इस जादुई आंकड़े को पार करता है, इससे अधिक की कमाई पर कम से कम अपनी मेहनत की कमाई का दस प्रतिशत सीधे सरकारी खजाने के नाम करना पड़ता है। इसके बाद वह नमक-माचिस खरीदे या दाल-रोटी वहाँ भी टैक्स देना पड़ता है। बदले में सरकार न सभी को शुद्ध पानी मुहैया करा पा रही है, न ही बिजली। सड़कों में तो ज्यादातर की स्थिति ऐसी है कि यह कहना मुश्किल कि सड़क पर गड्ढे हैं या गड्ढों में सड़क। शिक्षा कि तो बात करना ही बेमानी है। सरकार का उद्देश्य है लोगों को साक्षर बनाना, न कि शिक्षा के माध्यम से उसे जीवन जीने के काबिल बनाना। कहने में परहेज नहीं होना चाहिए कि हमारी शिक्षा व्यवस्था पर परोक्ष रूप से निजी शिक्षण संस्थाओं का कब्जा है। वर्तमान में अपराध और भ्रष्टाचार पर काबू पाना सरकार के बूते से बाहर दिखाई दे रहा है। फिर क्या जनता को यह पूछने का हक नहीं कि क्यों दें हम सरकार को टैक्स?

सिर्फ इसलिए कि नेता जी टैक्स के रूप में जमा इन रुपयों को अपने निजी खातों तक पहुंचा सकें? जिससे उनके बच्चे इन पैसों को बिसलरी की बोतलों पर बहा सकें, हवाई यात्राएं कर सकें? महानगरों में इनके फ्लैट/बंगले/मार्केटिंग कॉम्प्लेक्स बन सके? इनके बच्चे विदेश जा कर पढ़ाई कर सकें? बावजूद इसके भी अगर पैसे बच जाएँ तो पैसे खर्च करने के ढेरों तरीके हैं।

आखिर में सवाल वही बच जाता है कि फिर क्यों दें हम सरकार को टैक्स?

Friday, November 18, 2011

भूली-बीसरी यादें.... हमारा पहला मीडिया संस्थान भ्रमण

यह यात्रा वृतांत मेरे द्वारा अपने एम.ए. के शुरूआती दिनों में लिखी गई थी। दरअसल यह यात्रा हम लोगों के लिए पहला मौका था जब हम किसी मीडिया संस्थान या उसके किसी यूनिट को इतने करीब से देखने जा रहे थे। बस उसी उत्साह को उस समय के एक कॉपी में कलमबद्ध कर मैं भूल गया था। पिछले दिनों अपनी पूरानी कॉपियों को पलटने के क्रम में जब मेरी नजर इस पर गई तो लगा की क्यों न इसे सबके सामने लाया जाए, सो मैं इसे यहां प्रकाशित कर रहा हूँ –

सुबह के छ: बज चुके थे, खिड़की एवं दरवाजों के पाटों से झाँकती धुंधली रौशनी सवेरा होने का एहसास करा रही थी। मन में एक नई उमंग, कुछ जानने की जिज्ञासा, बिल्कुल नई चीजों से रूबरू होने का उत्साह, मन-मस्तिष्क में एक नई ऊर्जा का संचार कर रही थी। हमलोग फटाफट तैयार होकर गाड़ी का इंतजार कर रहे थे। कुछ ही समय बिता था कि गाड़ी हमारे सामने आकर खड़ी हो गई। हमलोगों को लोकमत समाचारपत्र के मुद्रण कार्यालय एवं मुख्य कार्यालय के भ्रमण के लिए जाना जो था। हमलोग मन में चल रहे सारे उधेड़-बुन को समेटते हुए गाड़ी में बैठ चुके थे। कुछ क्षणों पश्चात ही गाड़ी अपनी रफ्तार पकड़ चुकी थी। हमलोग अपने प्रभारी महोदय के साथ विश्वविद्यालय परिसर होते हुए पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं पर आपस में चर्चा करते हुए, जिसके बीच-बीच में आपस में हंसी-मज़ाक भी हो रहा था, आगे बढ़ रहे थे।

लगभग डेढ़ घंटे के पश्चात हमलोग बूटिबोड़ी पहुँच चुके थे, जो नागपूर शहर के समीप स्थित है। यहीं लोकमत समूह का मुद्रण कार्यालय है। बूटिबोड़ी कार्यालय में हमलोगों को वहाँ के बारे में पूरी जानकारी देने की ज़िम्मेदारी वहाँ के प्रोडक्सन ऑफिसर शैलेश आकरे की थी। बूटिबोड़ी में लोकमत समूह का सिर्फ छपाई कार्य ही संपन्न होता है, जबकि छपाई पूर्व की सारी प्रक्रियाएं नागपूर स्थित कार्यालय में पूरी की जाती है। यहाँ हमलोगों को समाचारपत्रों के छपाई के विभिन्न पहलुओं को जानने का मौका मिला। खासकर यह कि जिन समाचारपत्रों के बिना हमलोग सवेरे-सवेरे बेचैनी महसूस करने लगते हैं, उसके पीछे संवाददाताओं, उपसंपादकों एवं संपादक के अलावे मुद्रण से जुड़े सैकड़ों कर्मचारियों का अथक परिश्रम होता है।

वहाँ लगे बड़े-बड़े संयंत्र एवं आधुनिक तकनीक हमें इस बात का एहसास करा रही थी कि प्रिंट मीडिया भी किसी मायने में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से पीछे नहीं रहना चाहती। यहाँ भी हाई क्वालिटी मोडेम एवं उच्च स्तरीय मुद्रण तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है। यहाँ आकर हमें पता चला कि जो समाचारपत्र मात्र चंद रुपए में हमारे हाथों में आ जाता है, उसका उत्पादन मूल्य उससे कई गुणा अधिक होता है, जिसकी क्षतिपूर्ति विज्ञापन आदि माध्यमों से की जाती है।

यहाँ के उलझनों को सुलझाते-सुलझाते ही हमें देर हो चुकी थी और समयाभाव के कारण हमें मुख्य कार्यालय जाने के कार्यक्रम को स्थगित करना पड़ा। फिर भी सभी के चेहरे पर तैरती खुशी यह ब्याँ कर रही थी कि हमने समाचारपत्रों के मुद्रण से संबंधित विभिन्न जानकारियों को समेटने की कोशिश की थी

Thursday, November 3, 2011

चलिए खुश हो लिया जाए.. अब मैं बुद्धिजीवी हो गया हूँ

दोस्तों हर शगल की अपनी मादकता है और जब मादकता किसी शगल की हो तो वह हमें वास्तविक तथ्यों तथा दुनिया से बहुत दूर कर देता है। अब हम स्वीकार करें या ना करें, जैसे ही हम कोई शगल पालते हैं, उसकी मादकता हमारी दृष्टि को एकरेखिए होने को भी मजबूर कर देती है। और दोस्तों आजकल मैंने ब का शगल पाल रखा है, जो है.... खुद को बुद्धिजीवी दिखाने का। बुद्धिजीवी बनने का नहीं, बुद्धिजीवी होने का दिखावा करने का। गरीब, सर्वहारा वर्ग, पिछड़े, दलित, महिलाएं तो पहले से ही खुद को बुद्धिजीवी बताने के सबसे आसान हथियार थे, पर जबसे अन्ना हजारे ने आंदोलन का बिगुल फूंका है, आंदोलन रूपी हथियार मुझे ज्यादा फैशनेबल लगने लगा है और इस आंदोलन ने दूसरे हथियारों की धार थोड़ी कुंद कर दी है। आज हर कोई मैं अन्ना हूँ का राग लाप रहा है या फिर भ्रष्टाचार को घर के पिछवाड़े में उगे घास-फूस की तरह उखाड़ फेंकने की शपथ ले रहा है। अब चूंकि मैं बुद्धिजीवी हो गया हूँ तो कुछ तो मुझे मैं अन्ना हूँ और भ्रष्टाचार को घर के पिछवाड़े के घास-फूस की तरह उखाड़ फेंकने की शपथ लेने वालों से अलग करना होगा। ऐसे में मुझे याद आती हैं आयरन लेडी इरोम शर्मीला। सबसे पहले इस आयरन लेडी के त्याग और संघर्ष को मेरा सलाम और साथ में धन्यवाद भी। क्योंकि यह आयरन लेडी अगर 11 सालों से अनसन पर नहीं बैठीं होतीं तो इनके तारीफ में सिर्फ दो-चार शब्द कह देने भर से मुझे खुद को अतिरिक्त बुद्धिजीवी साबित करने का मौका कैसे मिल पाता, भले ही मुझ में एक दिन भी भूखे रहने की कुब्बत नहीं है। खुद को बुद्धिजीवी साबित करने के लिए करना भी क्या पड़ा? बस इरोम की तारीफ में दो चार कसीदे गढ़ने पड़े, शासन-व्यवस्था को दोषी ठहराते हुए कुछ बुरा-भला AFSPA को कहना पड़ा, भले ही मुझे AFSPA के A का मतलब नहीं पता है। भले ही मैं पहले किसी मणिपुरी को अपने पास भी फटकते नहीं देता था, परंतु जब खुद को बुद्धिजीवी होने का दिखावा करने के लिए इरोम ब्राण्ड का प्रयोग कर रहा हूँ तो बनावटी ही सही दो-चार मणिपुरी दोस्तों के नाम तो गिनाने ही पड़ेंगे। कुछ गालियां मुझे मीडिया को भी देनी पड़ी क्योंकि बिना मीडिया को गाली दिए मेरे बुद्धिजीवी होने का प्रमाणपत्र कैसे मिल पाता?

वैसे मैं अपने कुलपति सर की बातों से सौ फीसदी सहमत हूँ कि हम किसी भी गंभीर मुद्दे का सरलीकरण बहुत ही आसानी से कर देते हैं, जिससे हमें बचना चाहिए। परंतु मैं इसके लिए विनम्रता पूर्वक क्षमा चाहूँगा, क्योंकि अगर गंभीर मुद्दे के सरलीकरण और मौका मिलते ही राष्ट्र-राज्य की संकल्पना को खड़ी-खोटी सुनाने की विधा मुझे नहीं आती तो मेरे लिए खुद को बुद्धिजीवी होने का दिखावा कर पाना बहुत ही मुश्किल हो जाता।