Thursday, February 28, 2008

धारा के विरुद्ध!

बहुत बह लिये
अनुकुल-
धारा के होकर
कई चोटें दिए-
लहरों ने पीठ पर
मत कर और सहन
चल उठ
एक नाव चला-
धारा के विरुद्ध!

नया करने को
काफी है-
अपना साहस और खुद पर यकीन
तो बस-कमर कस
पतवार उठा
लहर-लहर में घुस
कतरे-कतरे को कर शुद्ध
चल उठ
एक नाव चला-
धारा के विरुद्ध!
संघर्ष कर
लहरों के थपेड़े खा
चट्टानों से टकरा
कितना धकेलेगी लहर
भर बाजुओं में बल
जोर आजमा
रख जान हथेली पर

आगे बढता चल
गम नहीं
जो
जान चली जाए
मत हो क्षुब्ध
चल उठ
एक नाव चला-
धारा के विरुद्ध!

संभव है शोर हो
अंगुलियाँ उठे
बहिस्क्रित कर दिये जाओ
और तुम
अकेले पड़ जाओ
संभव है-
तुम सराहे जाओ
तुम्हारी जय-जयकार हो
या
कोई हाथ बँटाने वाला मिल जाये
फिर फिकर् क्या?
कि जड़ किनारा गालियाँ दे
या
आँखे तरेरे हो क्रुद्ध
चल उठ
एक नाव चला-
धारा के विरुद्ध!
-मनीष
(छात्र-माहात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रिय हिन्दी विश्वविद्यालय)

Monday, February 25, 2008

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