Thursday, November 3, 2011

चलिए खुश हो लिया जाए.. अब मैं बुद्धिजीवी हो गया हूँ

दोस्तों हर शगल की अपनी मादकता है और जब मादकता किसी शगल की हो तो वह हमें वास्तविक तथ्यों तथा दुनिया से बहुत दूर कर देता है। अब हम स्वीकार करें या ना करें, जैसे ही हम कोई शगल पालते हैं, उसकी मादकता हमारी दृष्टि को एकरेखिए होने को भी मजबूर कर देती है। और दोस्तों आजकल मैंने ब का शगल पाल रखा है, जो है.... खुद को बुद्धिजीवी दिखाने का। बुद्धिजीवी बनने का नहीं, बुद्धिजीवी होने का दिखावा करने का। गरीब, सर्वहारा वर्ग, पिछड़े, दलित, महिलाएं तो पहले से ही खुद को बुद्धिजीवी बताने के सबसे आसान हथियार थे, पर जबसे अन्ना हजारे ने आंदोलन का बिगुल फूंका है, आंदोलन रूपी हथियार मुझे ज्यादा फैशनेबल लगने लगा है और इस आंदोलन ने दूसरे हथियारों की धार थोड़ी कुंद कर दी है। आज हर कोई मैं अन्ना हूँ का राग लाप रहा है या फिर भ्रष्टाचार को घर के पिछवाड़े में उगे घास-फूस की तरह उखाड़ फेंकने की शपथ ले रहा है। अब चूंकि मैं बुद्धिजीवी हो गया हूँ तो कुछ तो मुझे मैं अन्ना हूँ और भ्रष्टाचार को घर के पिछवाड़े के घास-फूस की तरह उखाड़ फेंकने की शपथ लेने वालों से अलग करना होगा। ऐसे में मुझे याद आती हैं आयरन लेडी इरोम शर्मीला। सबसे पहले इस आयरन लेडी के त्याग और संघर्ष को मेरा सलाम और साथ में धन्यवाद भी। क्योंकि यह आयरन लेडी अगर 11 सालों से अनसन पर नहीं बैठीं होतीं तो इनके तारीफ में सिर्फ दो-चार शब्द कह देने भर से मुझे खुद को अतिरिक्त बुद्धिजीवी साबित करने का मौका कैसे मिल पाता, भले ही मुझ में एक दिन भी भूखे रहने की कुब्बत नहीं है। खुद को बुद्धिजीवी साबित करने के लिए करना भी क्या पड़ा? बस इरोम की तारीफ में दो चार कसीदे गढ़ने पड़े, शासन-व्यवस्था को दोषी ठहराते हुए कुछ बुरा-भला AFSPA को कहना पड़ा, भले ही मुझे AFSPA के A का मतलब नहीं पता है। भले ही मैं पहले किसी मणिपुरी को अपने पास भी फटकते नहीं देता था, परंतु जब खुद को बुद्धिजीवी होने का दिखावा करने के लिए इरोम ब्राण्ड का प्रयोग कर रहा हूँ तो बनावटी ही सही दो-चार मणिपुरी दोस्तों के नाम तो गिनाने ही पड़ेंगे। कुछ गालियां मुझे मीडिया को भी देनी पड़ी क्योंकि बिना मीडिया को गाली दिए मेरे बुद्धिजीवी होने का प्रमाणपत्र कैसे मिल पाता?

वैसे मैं अपने कुलपति सर की बातों से सौ फीसदी सहमत हूँ कि हम किसी भी गंभीर मुद्दे का सरलीकरण बहुत ही आसानी से कर देते हैं, जिससे हमें बचना चाहिए। परंतु मैं इसके लिए विनम्रता पूर्वक क्षमा चाहूँगा, क्योंकि अगर गंभीर मुद्दे के सरलीकरण और मौका मिलते ही राष्ट्र-राज्य की संकल्पना को खड़ी-खोटी सुनाने की विधा मुझे नहीं आती तो मेरे लिए खुद को बुद्धिजीवी होने का दिखावा कर पाना बहुत ही मुश्किल हो जाता।

2 comments:

Sunil Kumar said...

एक जरुरी पोस्ट, आँखें खोलने में सक्षम आपका आभार

http://surjeetbuddhism.blogspot.com/ said...

Good aap Buddhieejeevi hogeye.