कहते हैं वैश्विक स्तर पर राजनीतिक मूल्यों का क्षरण प्रथम विश्वयुद्ध के समय से ही शुरू हो गया था. इस संदर्भ में इतिहासकार रॉबर्ट वोल से लेकर नॉरमन कैनटर तथा एच.जी. वैल्स आदी ने लिखा भी है कि पहले विश्वयुद्ध के बाद सामाजिक संबंधों, पहनावे के साथ-साथ राजनैतिक मुल्यों में भी गिरावट दर्ज की गई.
वर्तमान दौर की भारतीय राजनीति के दाव-पेंच को देख कर यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि यह मूल्यों और विचारों को नये रूप में परिभाषित करने में लगा हुआ है. जो आप पार्टी अपना पहला चुनाव शिला दिक्षित और कांग्रेस पार्टी को पानी पी-पी कर कोसते हुये लड़ी थी, जरूरत पड़ने पर वही आप पार्टी उसी कांग्रेस के सहयोग से सरकार बना लेती है. महाराष्ट्र चुनाव में भाजपा द्वारा जिस पार्टी को ‘नेशनल करप्ट पार्टी’ करार दिया गया, जरूरत पड़ने पर उसी पार्टी के सहयोग से अपनी राजनीतिक रोटी सेकने लगी. अभी बिहार की राजनीतिक में भी रोज नये दाव-पेंच खेले जा रहे हैं, जिसमें न तो नैतिक मूल्यों के लिए कोई जगह है और न ही कोई विचार बचा है. हर पार्टी दूसरी पार्टी पर हॉर्स ट्रेडिंग का आरोप लगा रही है. जिस राजनीति का मूल उद्देश्य सेवा और जन सरोकार होना चाहिए उसका मूल उद्देश्य कुर्सी बना हुआ है. जद (यू) भाजपा पर बिहार को राजनीतिक अस्थिरता के दलदल में धकेलने का आरोप मढ़ रही है तो भाजपा का आरोप है कि सत्ता में बने रहने के लिये जद (यू) उसी पार्टी से हाथ मिला चुकी है जिसके विरोध में जनता ने उसे जनादेश दिया है.
पर इन सब आरोप-प्रत्यारोपों से आम जनता को क्या? वह तो खुद को उस द्रौपदी के स्थिति में पाकर खूद को ठगा महसूस कर करी है जिसके किस्मत में एक के द्वारा उसे जुआ में दाव पर लगाना लिखा है तो दूसरे के द्वारा उसका चीरहरण करना.
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