इस डगर का ये भारी अफ़साना
मुश्किल है यहाँ से जी के जाना
दिन अंजाना , रात परवाना
फिर कैसा तू राही दिवाना ?
मिट गयी है जिन्दगी जीने की हसरत
करनी पड़ती यहाँ लाखों कसरत
दुखः भी आती तो देकर दस्तक
फिर कैसा ये चाहत बेगाना ?
है कैसी ये फितरत तेरी
या है मेरी नज़र टेढी
देख लीला दुनिया की !
उबकर मैंने आँखें बंद कर ली
है कैसा ये तेरा हरजाना ?
कहीं सिर्फ गम-मुसीबतें बर्षाना
तो कहीं खुशियाँ बनकर उमर जाना
फिर कैसा ये रिस्ता पुराना ?
है तो राह पार कर जाना
पड़ इसमें बार-बार कंकर-पत्थर का आना
और खुद को दुर्भाग्यशाली ठहराना
फिर कैसा तू राही दिवाना ?
- Kushboo Sinha
9 th std.
D.A.V. Public School,
Pupri,Sitamarhi
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