Sunday, July 7, 2013

वैश्वीकरण के दौर में मीडिया और मीडिया की नैतिकता

विवेक विश्वास एवं धनेश कुमार जोशी
(प्रकाशित शोध आलेख) 
वैश्वीकरण में अधिकतम सामाजिक और सांस्कृतिक अन्तर्विरोध निहित हैं। इसका संबंध पूंजीवाद तथा उसमें निहित शक्तियों  के अन्तर्विरोधों से है। वैश्वीकरण प्राथमिक रूप से आजादी और आत्मनिर्भरता को समाप्त करता है तथा लोगों को पर-आश्रित बनाकर गुलाम मानसिकता में जकड़ लेता है। पूंजीवाद तथा उसमें निहित शक्तियां यह कार्य वैश्वीक जनमाध्यमों, संचारप्रणाली तथा विभिन्न प्रचार माध्यमों के जरिये करता है। वैश्वीकरण के इस वर्तमान दौर में “समाज में नयी परिस्थितियों के अनुरुप नयी कतारबंदी शुरु हुई है”1 । यह कतारबंदी उन चंद लोगों की है जिनके हांथों में अधिकतम संसाधन और आर्थिक शक्तियां निहित हैं। यह कतारबंद लोग किसी एक समाज और देश से नहीं आते। परन्तु अलग-अलग समाज और देशों से होने के बावजूद भूमंडलीकरण के ये पैरोकार स्वयंभू शैली में अपने को 'विश्व नागरिक' घोषित कर बड़ी आसानी से अपने मूल उद्देश्यों और व्यावसायिक हितों को छुपा लेते हैं। अब स्वयंभू शैली में अपने को 'विश्व नागरिक' घोषित करने वाले ये वैश्विक रणनीतिकार अपने मूल उद्देश्यों और व्यावसायिक हितों को पूरा करने के लिए विभिन्न संचार प्रणालियों अर्थात मीडिया का इस्तेमाल बहुत ही सधे कदमों के साथ करते हैं। इन्हीं रणनीतियों के भंवर फंस कर हमारे विभिन्न जनमाध्यम जो पहले अपने पेशे को पत्रकारिता का नाम देते थे अब मीडिया के रूप में अपनी पहचान बनाने में लगे हैं। यहाँ सवाल ‘पत्रकारिता’ शब्द के जगह ‘मीडिया’ शब्द के प्रयोग का नहीं है बल्कि शब्दों के साथ उद्देश्यों, सरोकारों और नैतिक मूल्यों में बदलाव का है। जिस तरह ‘मम्मी’ शब्द से ‘माँ’ जैसे भाव और लगाव नहीं जुड़ सकता ठीक उसी प्रकार मीडिया कभी पत्रकारिता के उद्देश्यों और सरोकारों को आत्मसात नहीं कर सकती। जैसा सर्वविदित है और पूर्व में भी साकेत किया जा चुका है कि वैश्वीकरण का सीधा-सीधा संबंध पूंजीवाद से है तथा नैतिकता एक सामाजिक मूल्य है और कहते हैं पूंजी की कोई नैतिकता नहीं होती। यहाँ यह भी स्पष्ट करना बेहद जरूरी है कि धन और पूंजी दोनों अलग-अलग चीजें हैं, धन का अस्तित्व नैतिक और सामाजिक मूल्यों के साथ होता है जबकि पूंजी हमेशा खुद को इन मूल्यों से परे रखती है। पूंजी का उदेश्य ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना तो होता ही है साथ ही तेजी से पूंजी में इजाफा करने के लिए परिस्थियों का निर्माण करना भी होता है । यही वजह है कि पत्रकारिता जैसे ही मीडिया व्यवसाय के रूप में तब्दील हुई वैसे ही, भले ही मीडिया व्यवसाय को अन्य व्यावसायों से अलग करके देखा जाता रहा, परंतु आज का मीडिया प्रबंधन अन्य व्यवसायों की तरह मुनाफे और पूंजी के विस्तार के लिए मीडिया का इस्तेमाल भी दुधारू गाय की तरह करने लगी और इसके लिए हर सीमाएं एवं वर्जनाएं टूटने लगी चाहे इसके लिए उन्हें किसी भी हद तक क्यों न जाना पड़े। जिसके कारण पत्रकारिता के क्षेत्र में लगातार सामाजिक और नैतिक मूल्यों का ह्रास देखा जा रहा है।
वैश्वीकरण का पर्यावाची शब्द है भूमंडलीकरण और “भूमंडलीकरण के आलोचकों का कहना है कि यह बड़े व्यवसायों और अमीरों के समर्थन में है और श्रम, पर्यावरणवादियों, गरीबों और उन सभी की क्षमताओं को कम करके आंकती है  जो अपनी नियति का निर्माण खुद करते हैं। भूमंडलीकरण में ऐसी विशिष्ट अलोकतांत्रिक प्रवृति को भी देखा जाता है जो राष्ट्रीय सरकारों को बाध्य करती हैं कि या तो वे भूमंडलीकरण रूप में गतिशील पूंजी की जरूरतों को पूरा करे या फिर आर्थिक रूप से अपने सफाए का सामना करने के लिए तैयार हो जाए।“2  यहाँ वैश्वीकरण (भूमंडलीकरण) के आलोचकों ने वैश्वीकरण के उस अलोकतांत्रिक प्रवृति की ओर इशारा किया है जो पूंजी की जरूरतों को पूरा नहीं करने की स्थिति में राष्ट्रीय सरकारों को भी आर्थिक रूप से सफाए का सामना करने के लिए मजबूर कर सकती है। इन परिस्थितियों में मीडिया आखिर कब तक पूंजी और बाजार के आगे नतमस्तक हुए बिना नैतिकता का ध्वजवाहक बना रहेगा। वह भी तब जबकि इस तथ्य से हम सब अवगत हैं कि सामाजिक मूल्य और नैतिकता वस्तुनिष्ठ चीजें हैं और एक ही समाज में रहने वाले अलग-अलग समूहों और व्यक्तियों के लिए भी नैतिकता की परिभाषा एवं मानदंड अलग-अलग हो सकते हैं। फिर उस दौर में जब हमारी सरकार सूचना एवं प्रसारण क्षेत्र में एफडीआई की सीमा 49 प्रतिशत से बढ़ाकर 74 प्रतिशत कर दी है, मीडिया से किस हद तक नैतिक होने का उम्मीद हम कर सकते हैं? चूँकि बाजार को अपना विस्तार करना है इसलिए उसे विदेशी पूंजी की जरूरत है, स्वाभाविक है पूंजी की जरूरतों को पूरा नहीं करने की स्थिति में सरकार को आर्थिक रूप से अपने सफाए का डर सता रहा है, फलस्वरूप अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ सूचना एवं प्रसारण क्षेत्र में भी एफडीआई की सीमा 49 प्रतिशत से बढ़ाकर 74 प्रतिशत कर दी  गई है। अब सवाल यह है कि जब पूंजी की जरूरतों के आगे ताकतवर सरकारें नतमस्तक हैं तब खुद मुनाफा की इच्छा रखने वाले मीडिया समूहों और इन समूहों के पूंजीपति मालिकानों से हम कैसे उम्मीद रखें कि वह पूंजी की जरूरतों के आगे अपने नैतिक मूल्यों की बली नहीं देंगे। अमेरिका के जनसंचार अध्येता एडवर्ड एस. हर्मन और रॉबर्ट मैक्चेस्नी का भी मानना है कि “भूमंडलीय निगम पूंजी की ताकत सिर्फ आर्थिक और राजनितिक ही नहीं है, बल्कि इसका विस्तार विचार की बुनियादी मान्यताओं और रूपों तक है, जिसे कि हम विचारधारा कहते हैं।“3 अगर कोई पूंजी विचार की बुनियादी मान्यताओं और रूपों तक को प्रभावित करती है तो उसके साथ ही स्थापित नैतिक मूल्य भी बदलेंगे। क्योंकि किसी भी बुनियादी मान्यताओं का सृजन बगैर नैतिक मूल्यों के समावेश के नहीं हो सकता।   
“किसी देश या समाज-विशेष की देखरेख में संचालित होने वाले लोक-प्रसारण माध्यमों के सामजिक सरोकार और उनके कार्य-भार जहां उन्हें औरों से अलग करते हैं, वहीं उस समाज के प्रति बढ़ती जवाबदेही और क्रिया-कलाप उनकी भूमिका को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण भी बना देते हैं।“4 परन्तु वैश्वीकरण के दौर में मीडिया समाज से अधिक बाजार के प्रति जवाबदेह हो गई है और नैतिकता जैसे मूल्यों को शायद पुराने फैशन के रूप में देखा जाने लगा है। यही वजह है कि “सीमित स्वामित्व की ओर बढ़ते आधुनिक रुझान के कारण लोकतंत्र के लिए आवश्यक सांस्कृतिक परिस्थितियों को नकारा जा रहा है। विडंबना यह है कि कई बार ऐसा स्वतंत्रता के नाम पर किया जा रहा है।“5  सीधे शब्दों में कहा जाए तो ‘वैश्वीकरण’ के विस्तार और मजबूती के लिए मीडिया का बेजां दोहन किया जा रहा है जिसके लिए नैतिकता को नेपथ्य के पीछे धकेल दिया गया है, विश्व की शक्तिमान राजनितिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ताकतों के द्वारा विकासशील और पिछड़े देशों पर नियार्तित विचारधारा और संस्कृति थोपा जा रहा है, पश्चिमीकरण की घुट्टी इस तरह पीला दिया गया है कि नैतिकता को हम रूढ़ीवाद से जोड़कर देखने लगे हैं। अगर भविष्य के तरफ हमें देखना है तो किसी भी परिस्थिति में वैश्वीकरण के इस जकरण से खुद को आजाद करना होगा तथा नैतिक मूल्यों का बचाव करते हुए मीडिया के गिरते साख को बचाना होगा, जिससे कि यह सुनने से बचा जा सके कि “ मीडिया की नैतिकता! यह कैसा मजाक है भाई” । 
संदर्भ सूचि :
1.    चतुर्वेदी, जगदीश्‍वर; कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय, प्रोफेसर, हि‍न्‍दी वि‍भाग,  http://jagadishwarchaturvedi.blogspot.in/2010/05/blog-post_14.html
2.    मैक्चेस्नी, रॉबर्ट डब्ल्यू- वुड,इलेन मिकिसन्स- फॉस्टर, जॉन बेलेमी; पूजीवाद और सूचना का युग, ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली पृ.सं.- 29-30
3.    पारख, जवरीमल्ल; जनसंचार माध्यमों का वैचारिक परिप्रेक्ष्य, ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली पृ.सं.- 122
4.      भारद्वाज, नंद; संस्कृति, जनसंचार और बाजार, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं.- 38
5.     विलियम्स, रेमंड (अनुवादक- वर्मा, सत्यम एवं झा, प्रमोद); ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली पृ.सं.- 30

1 comment:

Shalini kaushik said...

..सार्थक विचारणीय प्रस्तुति आभार क्या ये जनता भोली कही जाएगी ? #
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