Thursday, June 27, 2013

दलित राजनीतिक समस्या और मीडिया का सामाजिक परिप्रेक्ष्य

उमेश कुमार पाठक एवं विवेक विश्वास
(प्रकाशित शोध आलेख)
            सामाजिक चेतना मानव संप्रेषण के मूल में है। आज का व्यक्ति समाजीकरण की अनंत क्रियाओं से दूर अधिकाधिक आत्मकेंद्रित होता जा रहा है। परिणामस्वरूप लोगों का सामाजिक संदर्भ एवं उसकी उपयोगिता दिन-प्रतिदिन सिमटती जा रही है। संचार तथा सामाजिक जीवन में गहरा संबंध हैं। पारस्परिक जागरूकता सामाजिक संबंधों का एक अनिवार्य घटक है।सामाजिक संबंधों में पारस्परिक जागरूकता सन्निहित है और संचार पारस्परिक जागरूकता की सामाजिक प्रक्रिया है।यहां पारस्परिक जागरूकता का अर्थ केवल मैत्री नहीं है। समानता, असमानता, हित, अहित, भलाई, बुराई, सहयोग, संघर्ष आदि सभी इस प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं। विचार संप्रेषण का, परिवर्तित सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक, आर्थिक, नैतिक और धार्मिक संवेदनाओं के वाहक जनमाध्यम वर्तमान  में विभ्न्नि क्षेत्रों में अपनी उललेखनीय भूमिकाओं का निवर्हन कर रहे हैं। भारतीय परिवेश में जनसंचार माध्यमों की भूमिकाओं के आलोक में यह कहा जा सकता है कि यहां पर सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के निमित्त सूचनाओं के आदान-प्रदान हेतुु एक महत्त्वपूर्ण आधार के रूप में अपनाया जा सकता है। यह तो वह शक्तिशाली हथियार है, जिससे मानवीय सामाजिक संबंधों की नई सीमा रेखा तैयार की जा सकती है। इस आलोक में डाॅ. जेम्स मूत्र्ति का मानना है कि जन मानस निश्चित रूप  में मानव जाति से जुड़ी कुछ मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं एवं सामाजिक प्रवृत्तियों को संतुष्ट करते हैं। लेकिन, संचार की सार्थकता केवल यही तक नहीं है। चूंकि, जनसंचार माध्यम सामाजीकरण के प्रमुख माध्यम हैं, इसलिए मानव समाज बुद्धि, तर्क, रीति-नीति तथा सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं की सतत प्रक्रिया द्वारा विकास की ओर गतिशील है। इस गति को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि वह इनका हस्तांतरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को करता रहे। संचार की विभिन्न विधाएं हस्तांतरण की इस प्रक्रिया में सहायता कर सामाजिक निरंतरता बनाए रखती हैं। कहना गलत न होगा कि समाजीकरण का मूल आधार ही संचार है। मानव-शिशु संसार में पशु की आवश्यकताओं से युक्त एक जैविक प्राणी के रूप में जन्म लेता है। धीरे-धीरे वह कार्य तथा विचार की सामाजिक-सांस्कृतिक विधियों को सीखकर सामाजिक प्राणी के रूप में आकार ले लेता है। रूपाकार की इस प्रक्रिया के बिना न तो समाज जीवित रह सकता है, न संस्कृति और न ही सामाजिक मनुष्य का निर्माण हो सकता  है। यही प्रक्रिया समाजीकरण कहलाती है और यहां मीडिया की भूमिका सजग प्रहरी के रूप में हो सकता है। मनुष्य जैवकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी तब बनता है जब संचार द्वारा सांस्कृतिक अभिवृत्तियों, मूल्यों और व्यवहारों को आत्मसात कर लेता है। व्यक्ति के सामाजीकरण में संचार के महत्त्व को समझने के लिए सामाजिक प्रक्रिया के तत्वों की जानकारी सहायता कर सकती है। दलित राजनीति की समस्याओं को समझने के लिए इसके ऐतिहासिक संदर्भों को समझना अति आवश्यक है। यहां यह देखने की खास जरूरत है कि दलित राजनीति की समस्याओं का कितना संबंध इतिहास से है और कितना संबंध मुख्यधारा की राजनीति की अंतर्बाधाओं से है।
प्रस्तावनाः
            ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो आधुनिक संदर्भ में भारतीय राजनीति की शुरूआत अंग्रेजों के औपनिवेशिक वर्चस्व से बाहर निकलने की छटपटाहट के साथ शुरू हुई और उसी छटपटाहट की मति-गति से जुड़ी रही। अंग्रेजों के औपनिवेशिक वर्चस्व से कौन सी पीड़ा उत्पन्न हुई थी, यह एक बार ध्यान में लाने की जरूरत है। निःसंदेह वह पीड़ा धन के विदेश चले जाने की पीड़ा थी-
                    अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी, पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।” 
इस धन में दलितों की साझेदारी कितनी थी ? अगर बहुत नहीं थी तो धन के विदेश चले जाने का बहुत दुख दलितों को क्यों होना चाहिए था ? आजादी के आंदोलन के दौरान आजादी का क्या अर्थ बन रहा था, इसे यदि ठीक से नहीं समझा जाय तो दलित राजनीति का आजादी के आंदोलन से कैसा संबंध हो सकता था, इसका अनुमान भी सहज ढंग से नहीं लगाया जा सकता है। अस्तु, दलित राजनीति की समस्याओं को समझने के लिए आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा से दलित राजनीति के द्वंदात्मक रिश्ते की ऐतिहासिकता को कोरी भावुकता से ऊपर उठकर समझना जरूरी है। आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा से दलित राजनीति के द्वंदात्मक रिश्ते में यह बात निहित थी कि दलित राजनीति का लक्ष्य अंग्रेजों  के बाह्य औपनिवेशिक शक्ति से मुक्ति के साथ ही वर्णव्यवस्था के वर्चस्व के साथ आंतरिक उपनिवेश को मजबूत करने वाली शक्तियों के द्वारा निर्मित आजादी के आंदोलन की  मुख्यधारा के भावुकतापूर्ण राष्ट्रवाद के प्रपंच से, अर्थात आंतरिक उपनिवेश से भी मुक्त होना था। आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा केवल बाहरी औपनिवेशिकता से लड़ रही थी, जबकि दलित राजनीति के सामने आंतरिक औपनिवेशिकता का सवाल अधिक मुखर था। अभिप्राय यह है कि आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा की तुलना में दलित राजनीति का दोहरा और अधिक पूर्ण होने के कारण कठिन भी था। जाहिर है कि दलित आंदोलन का टकराव आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा से भी होता था। मुख्यधारा की राजनीति और तत्कालीन मीडिया दलितों के दुख के प्रति इतनी संवेदनशील नहीं थी कि वह इस टकराव की तह में जाकर इसके वास्तविक कारणों को समझती तथा इसके औचित्य का प्रतिपादन करती। मुख्यधारा की राजनीति अथवा मीडिया उल्टे दलित राजनीति पर मन से आजादी के आंदोलन की भागीदार नहीं बनने या रोड़ा अटकाने जैसे मिथ्या मनोभाव से ग्रस्त हो जाती थी।
            आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा के न केवल नैसर्गिक नेता थे गांधी जी, अपितु वे उसके प्रतीक पुरूष भी थे। दलित राजनीति और उसके अंतःसंबंधों को जानने के लिए गांधी जी के दृष्टिकोण को जानना यहां आवश्यक हो जाता है। गांधी जी न सिर्फ महात्मा के रूप में जाने जाते हैं, अपितु वे महात्मा थे भी। उनकी यह प्रबल धारणा थी कि अस्पृश्यता जैसे ही खत्म होगी, स्वयं जाति प्रथा भी शुद्ध हो जाएगी, अर्थात मेरे स्वप्नों के अनुसार शुद्ध जाएगी। यह सच्ची वर्णाश्रम व्यवस्था बन जाएगी, जिसके अंतर्गत समाज चार भागों में विभाजित होगा तथा प्रत्येक भाग एक-दूसरे का पूरक होगा, कोई छोटा या बड़ा नहीं होगा। हिंदू धर्म के समग्र अंग के लिए प्रत्येक भाग समान रूप से आवश्यक होगा या एक भाग उतना ही आवश्यक होगा जिनता दूसरा। गांधी जी की इस अवधारणा को थोड़ा विश्लेषित करें तो कुछ बातें स्पष्ट परिलक्षित होती हैं-
-        सच्ची वर्णव्यवस्था अच्छी है
-       इसके अंतर्गत समाज चार भागों में श्रम के आधार पर विभाजित होता है।
-      सच्ची वर्णव्यवस्था में ये चारो एक-दूसरे से छोटे अथवा बड़े नहीं होते, अपितु एक-दूसरे के पूरक होते है।
-       इन चार भागों के सदस्यों की सामाजिक समता का सवाल गांधी जी की नजर से ओझल रहता है।
-       गांधी जी वर्णव्यवस्था को हिंदू धर्म का आंतरिक मामला मानते थे और इसकी विकृतियों को सामाजिक धार्मिक मामला मानते हुए इन विकृतियों को धर्म में निहित करूणा के बल पर सामाजिक आंदोलन से दूर कर सच्ची वर्णव्यवस्था को कायम करना चाहते थे।
-       गांधी जी दलित समस्या को राजनीति से काटते थे तथा धर्म और समाज से जोड़ते थे। इन मान्यताओं को मुख्यधारा की राजनीति से अनुमोदन और समर्थन प्राप्त था।
            इसका परिणाम यह यह हुआ कि मुख्यधारा की राजनीति के साथ-साथ कहीं-न-कहीं मीडिया के  भी अंतर्मन में यह बात बनी हुई थी कि दलित समस्या का राजनीतिक लोकतंत्र से कोई सरोकार नहीं है। अतः राजनीतिक नेताओं को इससे दूर ही रहना चाहिए। चूंकि, इसका सरोकार धर्म से है, अतः धार्मिक नेता, पंडा, पुजारी,संत, महात्मा आदि को ही दलित समस्या पर कुछ सोचना और करना चाहिए। दलित राजनीति इन बातों से घोर असहमत थी। दलित राजनीति के निहितार्थ और प्रतिपाद्य के संदर्भ में कतिपय बिंदुओं का उल्लेख किया जा सकता है-
-       वर्ण व्यवस्था अपने किसी भी रूप  में अच्छी नहीं हो सकती।
-       वर्ण व्यवस्था में श्रम का नहीं जन्म के आधार पर श्रमिकों का विभाजन होता है।
-       वर्णव्यवस्था के विभाग अनिवार्यतः एक-दूसरे से बड़े अथवा छोटे होते हैं।
-       दलित राजनीति में सामाजिक समता मूल और मानवाधिकार का मामला बनकर उभरता है।
-       दलित राजनीति मूल प्रश्न में निहित सामाजिक उलझनों में पड़कर आर्थिक समता का सवाल पूरी तत्परता से नहीं उठा पाता है। मुख्यधारा की राजनीति भी हालांकि आर्थिक समता सवाल नहीं उठाती है।
-       दलित राजनीति किसी भी रूप में वर्णव्यवस्था को हिंदू धर्म का आंतरिक मामला नहीं मानती थी। धर्म में निहित करूणा पर उसे कतई विश्वास नहीं था। वह राजनीति में निहित अधिकार चेतना को अधिक महत्त्व प्रदान करती थी।
-       दलित राजनीति अपने राजनीतिक एजेंडे में  दलित समस्या को पूरे आग्रह के साथ समेटती थी। धर्म ओर समाज से इसे जोड़कर देखने का दौर सामाजिक आंदोलन के प्रथम चरण में पमरा हो चुका था।
-       दलित समस्या को राजनीति से काटने तथा धर्म और समाज से जोड़ने के लिए गांधी जी की अवधारणा में दलित राजनीति की आस्था नहीं थी और राष्ट्रीय स्तर के अपने राजनीतिक नेतृत्व के विकास में गहरी आकंक्षा रखती थी।
            यह सच है कि मुख्यधारा के भारतीय राष्ट्रवाद का विकास आधुनिक चेतना के आग्रहों के अंतर्गत हुआ। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। भारतीय राष्ट्रवाद की आधुनिक  चेतना ने न तो कभी आधुनिकता को पूरी तरह अपनाया और न ही आधुनिकता की परियोजनाओं को पूरा करने में ही कोई वास्तविक दिलचस्पी दिखलाई।इस राष्ट्रवाद के नायक महात्मा गांधी थे। उनकी मूल चेतना की शरणागति, करूणा, हृदय परिवर्तन और धार्मिकता से गहरा संबंध था, उतना गहरा संबंध सामाजिक अंतर्निर्भरताओं, अधिकारिताओं, परिस्थति-परिवर्तन आदि से नहीं था। आशय यह है कि भारतीय आधुनिकताबोध के ऊपर पूर्वआधुनिकताओं का बोध पूरी तरह से लदा हुआ था। पूर्वआधुनिकताओ में जो कत्र्तव्य राजा के थे, उन कत्र्तव्यों को मुख्यधारा के भारतीय राष्ट्रवाद के विकास की राजनीति ने अपनी तमाम सदाशयताओं के बावजूद अपने राजनीतिक एजेंडे में स्वीकार कर लिया। राजा के कत्र्तव्यों को देखें तो ईसा की दूसरी शताब्दी के प्राप्त अभिलेखों से पता चलता है कि वह वर्ण व्यवस्था का संरक्षक एवं पोषक होता था। इसके बाद राजा के इस कत्र्तव्य की चर्चा अीिलेखों में आमतौर पर होने लगी। कलियुग का सामाजिक संकट आरंभ होने के बाद राजा के इस दायित्व पर सबसे अधिक बल दिया जाने लगा। ईसा के बाद तीसरी शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश से चैथी शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश के पौराणिक पाठ्यांशों से पता चलता है कि आंतरिक संकट के कारण वर्णव्यवस्था बिखरने लगी। इस अवस्था को कलियुग की संज्ञा दी गई। कलि से लोगों का उद्धार करना राजा का पुनीत कत्र्तव्य बन गया। ईसा के बाद की 04-06 शताब्दियों के अभिलेखों में स्पष् भारतीय राष्ट्रवाद रूप  से और बाद के पुरा लेखों में पारंपरिक रूप से राजा को वर्णधर्म का पोषक बतलाया गया है। कहना गलत न होगा कि कलि से लोगों का उद्धार करना वर्णव्यवस्था को बिखराव से बचाना है। जाहिर है कि महात्मा गांधी जब सच्ची वर्णव्यवस्था की बात करते थे, तो उसके पीछे राजा के कत्र्तव्य को मुख्यधारा के राष्ट्रवाद की राजनीति द्वारा आत्मार्पित करने की ऐतिहासिकता को दलित राजनीति की समस्या के संदर्भ में सचेत होकर पढ़ने की जरूरत है।
            इस परिप्रेक्ष्य में जवाहरलाल जैसे जुझारू लोगों का विचार था कि यह कार्यक्रम साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के मुख्य कार्य से हानिकर भटकाव है, यह धारणा इस बात से भी पुष्ट होती थी कि ब्रिटिश सरकार जेल में गांधी जी को हरिजन कार्यक्रम सहर्ष चलाने देती थी। साथ ही कांग्रेस के भीतर रूढि़वादी  हिंदुओं को यह नई बात अधिकाधिक खल रही थी। उदाहरण के लिए मालवीय जी जो 1920 के दशक के मध्य में गांधी जी के अत्यंत निकट रहे थे, अब उनसे दूर जाने लगे थे। हिंदू संप्रदायवादियों में इस बात से भी क्षोभ बढ़ा कि गांधी जी ने मैकडोनल्ड निर्णय की अन्य बातों  से कोई सरोकार रखना अस्वीकार कर  दिया था, जिसके अनुसार पंजाब में मुसलमानों को 49 प्रतिशत और बंगाल में 48.6 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया गया था (अर्थात यूरोपियन सदस्यों के साथ मिलकर इन प्रांतों में उनका बहुमत हो जाता था)। बंगाल के रूढि़वादी हिंदुओं को इस बात पर आपत्ति थी कि पूना पैक्ट ने हमेशा के लिए सवर्ण हिंदुओं को अल्पसंख्यकों की हैसियत प्रदान कर दी थी। लेकिन, जून 1934 में कांग्रेस कमिटि ने एक समझौतापूर्ण न स्वीकार कर, न इनकारका उपाय अपनाया, जिसके परिणामस्वरूप मालवीय जी ने एक अलग नेशनलिस्ट पार्टी बनाई। अप्रैल और जुलाई 1934 में बक्सर, जसीडीह और अजमेर में सनातनियों ने गांधी जी की हरिजन सभाओं को भंग किया और पूना में 25 जून को उनकी कार पर बम से हमला भी किया गया। अंग्रेज सरकार भी आधुनिकीकरण का प्रभाव डालने दावा तो करती थी, किंतु वह भी रूढि़वादी जनमत का विरोधी नहीं बनना चाहती थी। अतः अगस्त 1934 में सरकारी सदस्यों ने लेजीस्लेटिव एसेंबली में टेंपल एंट्री बिल को पराजित करने में सहायता की।
            इस लंबे उद्धरण से यह बात समझ में आती है कि हरिजन की सामाजिक स्थितियों को लेकर मुख्यधारा के भारतीय राष्ट्रवाद का नजरिया कैसा था। न तो मदनमोहन मालवीय जैसे रूढि़वादी लोगों के मन में दलित प्रश्न को महसूस करने की संवेदनशीलता थी और न ही नेहरू जैसे प्रगतिशील लोगों को आंतरिक औपनिवेशिकता से संघर्ष करने की राजनीतिक फुर्सत थी। मुख्यधारा के भारतीय राष्ट्रवाद के चरित्र की स्थापन्नता को देखते हुए रवींद्रनाथ ठाकुर ने राष्ट्रवाद की सर्वोच्चता की अवधारणा से अपने को मुक्त करना जरूरी समझा होगा। भारत ने सही अर्थों में कभी भी राष्ट्रीयता हासिल नहीं की। मुझे बचपन से ही यह सिखाया गया कि राष्ट्र सर्वोच्च है, ईश्वर और मानवता से भी बढ़कर। आज मे। इस धारणा से मुक्त हो चुका हूं और दृढ़ता से मानता हूं कि मेरे देशवासी देश को मानवता से भी बड़ा बताने वाली शिक्षा का विरोध करके ही सही अर्थों में अपने देश को हासिल कर पाएंगे। रवींद्रनाथ ठाकुर की इस घोषणा के बावजूद बंगाल मंे भारतीय राष्ट्रवाद के साथ और सहमेल में बांग्ला राष्ट्रवाद का विकास भी बहुत तेजी से हुआ, केवल विकास ही नहीं हुआ, बल्कि रवींद्रनाथ ठाकुर को ही उसके केंद्रीय-व्यक्ति प्रतीक के रूप में अपनाया भी गया।
            पूंजीवाद की साम्राज्यवादी आकांक्षा ने राष्ट्रवाद के नाम के ऐसे नुस्खे का आविष्कार किया था जो हर मर्ज की दवा थी। राष्ट्रवाद के नाम पर राष्ट्र के अंदर के किसी भी विभेद, विषमता और असहमति को नजरअंदाज करते हुए पूंजी के प्रच्छन्न हित में सभी देशवासियों को जान देने तक के लिए पूंजीवाद आसानी से प्रोत्साहित करता था। राष्ट्रवाद ऐसा दुधारी कटार था जिससे पूंजीवाद देश के अंदर भी अपना हित साधता था और देश के बाहर भी। एक प्रकार से राष्ट्रवाद मनुष्य को अंधा बनाने का ही उपाय था। इस संदर्भ में एक लोकप्रिय कहावत याद आती है कि जो दूसरे को अंधा बनाने के की परियोजनाओं पर काम करता है, उसके खुद के अंधा बनने में कितनी देर लगती है। परिणामतः राष्ट्रवाद बहुत शीघ्र ही अंधा हो गया। अंधराष्ट्रवाद ने जो गुल खिलाये, वह तो सर्वविदित ही है। यह दलित राजनीति का राजनीतिक कौशल ही था कि वह मुख्यधारा के भारतीय राष्ट्रवाद के अंधत्व से बहुत हद तक अपने को बचाए रखा।
            गांधी जी के लिए तो हरिजन आंदोलन सच्ची वर्णव्यवस्था की बहाली का उपाय था। अगस्त 1932 में  मैकडोनल्ड ने सांप्रदायिक मामले में जो निर्णय दिया था, उसमें हरिजनों के लिए अलग से निर्वाचक मंडल बनाने की बात भी थी। इससे गांधी जी को यह बात सूझी कि वे अपना ध्यान मुख्य रूप से हरिजन कल्याण पर केंद्रित करें।
            20 सितंबर को गांधी जी ने हरिजनों के लिए अलग निर्वाचक मंडल के मुद्दे के विरूद्ध आमरण अनशन आरंभ कर दिया। और, अंत में वे सवर्ण हिंदू एवं हरिजन नेताओं के बीच पूना पैक्ट नामक एक समझौता कराने में सफल हुए। इस समझौते के अनुसार मैकडोनल्ड के प्रस्ताव में परिवर्तन किए गए। हिंदुओं के लिए संयुक्त निर्वाचक मंडल बने रहे जिनमें अछूतों के लिए आरक्षित सीटें रखी गई और मैकडोनल्ड की तुलना में उन्हें अधिक प्रतिनिधित्व भी दिया गया। यही वह व्यवस्था थी जो मूलतः 1947 के बाद भी बनी रही। अब हरिजनों का उत्थान गांधी जी का मुख्य सरोकार हो गया। एक छूआछूत विरोधी लीग की स्थापना की गई। सितंबर 1932 और गांधी जी के रिहा होने के पूर्व ही साप्ताहिक हरिजन,जनवरी 1933, का प्रकाशन प्रारंभ किया गया। नवंबर 1933 और अगस्त 1934 के बीच उन्होंने 12,500 मील की हरिनज यात्रा की और 15 जनवरी 1934 को बिहार में जो भयंकर भूकंप आया उसे सवर्ण हिंदूओं के पापों का देवी दंड कहा। यह एक ऐसी सुधारविरोधी बात थी, पुरातनपंथी बात थी, जिससे रवींद्रनाथ को गहरा सदमा लगा।
उद्देश्य एवं महत्त्वः
 मीडिया संसदीय लोकतंत्र का प्रहरी माना गया है। लोकतंत्र और बाजार के साथ मिलकर पत्रकारिता ने सामाजिक बदलाव में बड़ी भूमिका निभाई है। हम सब अपने-अपने अनुभवों के आधार पर कह सकते है कि हमारे होश संभालने से लेकर आज तक में काफी अंतर आ चुका है, और ज्यादातर बदलाव सकारात्मक है। मीडिया का शोध छात्र होने के नाते यह दावा करना सुखद लगता है कि सकारात्मक बदलाव लाने में मीडिया की भी भूमिका रही है। आरंभिक काल से ही समाज में जिन चीजों का महत्व और सम्मान है, उनमें मीडिया भी एक है। भारतीय समाज विविधताओं से भरा है। फिर भी सामाजिक वर्णव्यवस्था और उसका स्याह पक्ष भारतीय समाज की एक कड़वी सच्चाई है। इसलिए दलित, मुख्यधारा की राजनीति और मीडिया के अंतःसंबंधों को समझे बिना संदर्भित विषय की मूल समस्या व उसकी प्रकृति को समझना संभव नहीं है।
शोध-प्रविधिः
प्रस्तुत शोध आलेख लेखन में मुख्यतः प्राथमिक स्रोत के साथ-साथ द्वितीयक स्रोतों का भी सहारा लिया गया है। हालांकि, इस पूरी प्रक्रिया में संबंधित साहित्यों का पुनरावलोकन काफी उपयोगी साबित हुआ है। प्राप्त निष्कर्ष एवं सुझाव इन्हीं अध्ययन एवं विश्लेषण का नतीजा है। समय-समय पर जनमाध्यमों में प्रकाशित अथवा प्रसारित सूचनाओं के आधार पर भी वस्तुस्थिति को समझने की कोशिश की गई है। उपरोक्त विषय के संदर्भ में कुछ वरिष्ठ मीडिया विशेषज्ञों के साथ-साथ दलित चिंतकों और दलित राजनेताओं के मौखिक साक्षात्कार में निकल कर आए विचारों को भी अध्ययन एवं विश्लेषण का आधार बनाया गया है।
निष्कर्ष एवं सुझाव:
            दलित विमर्श की भूमिका में कंवल भारती के निष्कर्ष से दलित राजनीति की सीमा और संभावना पर बात शुरू की जा सकती है। जैसा कि डाॅ. अंबेडकर ने कहा था कि दलित समान विचारधारा वाले दलों से मिलकर अपनी राजनीतिक शक्ति बना सकते हैं। बहरहाल आज की राजनीति की समस्या और दलित राजनीति की समस्या और इन समस्याओं के मीडिया और पारस्परिक सरोकारों पर बात करते हुए आज की राजनीतिक चुनौतियों के भारतीय परिप्रेक्ष्य पर बात करना अधिक प्रासंगिक है।
            विविधता में एकता को फैलाकर विषमता में एकता तक भी चाहे क्यों न लाया जाय, सच तो यह है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य बुरी तरह विभंजित रहा है। इस विभंजन में कई कारकों की सक्रिय भूमिका होती है। यहां दलित सिर्फ दलित नहीं होता, मराठी, हिंदी, पंजाबी, कांग्रेसी, बहुजनवादी, भाजपाई, दरिद्र, अमीर, शिक्षित, अशिक्षित दलित भी होता है। हम और अन्य के निर्धारण के ढेर सारे वास्तविक और आभासी कारक एक साथ सक्रिय रहते हैं। इन कारकों में अंतर्विरोध ही नहीं अंतव्र्याघात भी होता है। इन कारकों को स्थगित या निष्क्रिय करना बहुत मुश्किल है।
            क्योंकि, विरोधाभाषी जीवन की विसंगतियों को दूर करने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को हासिल करने के लिए हिंदुत्व और उदारीकरण, निजीकरण व भूमंडलीकरण से संघष्र को एक साथ एवं सकारात्मक ढंग से चलाने के लिए दलित राजनीति को मुख्यधारा की मीडिया के साथ नई समझदारी और सहमेल  की नई गुंजाइश विकसित करनी होगी। इस गुंजाइश का न बनना अपने आप में समस्याओं की जड़ है। यह एक सामान्य भारतीय संस्कृति के विकास के लिए यह जरूरी है, क्योंकि यह बात माननी ही होगी कि ऐतिहासिक रूप से एक सामान्य भारतीय संस्कृति का कभी अस्तित्व नहीं रहा है। ऐतिहासिक रूप से भारतीय तीन रहा है- ब्राह्मण भारत, बौद्ध भारत और हिंदू भारत।.....यह बात भी माननी होगी कि मुसलमानों के वर्चस्व से पहले ब्राह्मणवाद और बौद्धवाद के बीच गहरे नैतिक संघर्ष का भी इतिहास रहा है। जाहिर है कि जब पूंजी की सत्ता अधिराष्ट्रीय होती जा रही है, श्रम की सत्ता को बचाने के लिए राष्ट्रीय सरोकारों को नए सिरे से टटोलना होगा तभी सही अंतरराष्ट्रीयता, आकांक्षित पर्यावरणीय भूमंडलीकरण और विश्व मानवतावाद का विकास हो पाएगा। इसके लिए आत्म निर्णय का अधिकार ही काफी नहीं है। आत्मान्वेषण का धैर्य, आत्म संयोजन का साहस और आत्म विस्तार का विवेक  भी चाहिए। और, इन सबको नए सिरे से संगब्ति करने की दृढ़ इच्छा क्रिया-शक्ति भी चाहिए। तभी फैज को दोहराने का साहस करते हुएकह सकेगा-
ऐ खाक मशीनों उठ बैठो
वे वक्त करीब आ पहुंचा है
ज्ब तख़्त गिराए जाएंगे
त्ब ताज उछाले जाएंगे
अब टूट गिरेंगी जंजीरें
अब जिन्दानों की खैर नहीं
जो दरिया झूम के उठे हैं
तिनको से न टाले जाएंगे
लोग जुटेंगे और जंजीरें टूटेंगी
जंजीरें टूटती आई हैं, जंजीरें टूटेंगी
और जरूर टूटेंगी।
संदर्भ-ग्रंथ सूचीः
1.    गौतम, एस.एस., विजयी डॉ.आर.एम.एस. : चमार जाति का इतिहास और संस्कृति, गौतम बूक सेंटर, नई दिल्ली, 2012.
2.    आंबेडकर, डॉ. बी.आर. : जाति भेद का उच्छेद, गौतम बूक सेंटर, नई दिल्ली, 2010.
3.    शर्मा, रामशरण : शूद्रों का प्राचीन इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009.
4.    सांस्कृतयायन, राहुल : मानव समाज, लोकभरती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2012.
5.    शम्भूनाथ : सामाजिक क्रांति के दस्तावेज, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006.
6.    राय, डॉ. सत्या एम. : भारत में उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय दिल्ली विश्व विद्यालय, दिल्ली, 2009.
7.    बेचैन, डॉ. श्योराज सिंह : मीडिया और दलित, गौतम बुक्स, नई दिल्ली, 2009.
8.    लेले, मधुकर : भारत में जनसंचार प्रसारण मीडिया, राधा कृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011.
9.    सिन्हा, सच्चिदानंद : अनु. मोहन अरविंद, जातिव्यवस्था : मिथक और चुनौतियाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008.
10.  जयसवाल, सुवीरा : वर्णजाति वयवस्था रू उद्धव प्रकार्य और रूपांतरण, ग्रंथशिल्पी प्रकाशन नई दिल्ली, 2004.
11.  पुनिया, महासिंह : पत्रकारिता का बदलता स्वरूप, हरियाणा साहित्य अकादमी,पंचकूला, 2004.
12.  पाटिल, अशोक डी.,एस.एस. भदौरिया : भारतीय समाज, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल, 2007.
13.  चतुर्वेदी, जगदीश्वर : हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास , प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, 2009.
14.  मंगल लाल चन्द्र, चन्द्र त्रिखा : चैथे स्तम्भ को चुनौतियाँ, हरियाणा साहित्य अकादमी,पंचकूला, 2005.
15.  चोपड़ा लक्षमेन्द्र : मीडियाऔर समाज, आधार प्रकाशन पंचकूला, 2007.
16.  मेहता, आलोक : पत्रकारिता की लक्षमन रेखा,सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2005.
17.  माहेश्वरी, सरला : समान नागरिक संहिता, राधाकृष्ण पुब्लिकेशन, नई दिल्ली, 2004.
18.  शुक्ल, मेहता : जनसंचार एवं पत्रकारिता,गीता प्रकाशन, दिल्ली, 2008.
19.  मिश्र, राजेंद्र : मीडिया अनुसंधान, तक्षशिला प्रकाशन,नई दिल्ली, 2009.
20.  मोहन, पी. वी. जगन : मानवाधिकार हनन के अमानवीय चेहरे, मानस पब्लिकेशन्स इलाहाबाद, 2004.
21.  सिन्हा, सच्चिदानंद : लोकतन्त्र की चुनौतियाँ, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, 2005.
22.  पुनियानी, राम, गुप्ता रामकिशन(अनु.), वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, 2005.
23.  दुबे, अभय कुमार(संपादक) : भारत का भूमंडलीकरण,विकासशील समाज अध्ययनपीठ दिल्ली, 2007.
24.  उपाध्याय : भारतीय समाज का भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, 2004.

No comments: