Wednesday, April 7, 2010

ज़मीर

मैं सुहाने मौसम में शान्तचित्त बैठा था,
कि एकाएक अनहद से आवाज आयी,
तुम कौन हो?
मैं हड़बड़ाया
इधर-उधर देखा,
कोई नज़र नहीं आया,
फिर मैंने हिम्मत करके पूछा,
भाई तुम कौन हो,
क्या जानना चाहते हो?
फिर आवाज आई
तुम कौन हो?
कहां हो और पहले बताओ?
मैं
सहमा डरा हुआ
अपना परिचय बताया-
मैं इक्कीसवी सदी का प्रकृति का मानव हूँ|
फिर आवाज आई- "अपना पूरा परिचय बताओ?
फिर मैंने आगे बोला-
मैं मनु एवं सतरुपा का वशंज हूँ
मेरा शरीर खून,
मांस-हड्डी का बना है,
मैं मानव हूँ,
सोच समझ बुद्धि में सबसे महान हूँ,
बड़े-बड़े काम, अविष्कार किये है
मैंने,
फिर आवाज आई-
तुम कौन हो
अब क्या कर रहे हो?
डरा-सहमा चुप रहा मैं'
फिर आवाज आई-
बोलो-बोलो तुम कौन हो?
फिर सहम कर बोला-
मैं अतिताइयों से डरा,
अपने पथ से भटका,
असहाय मानव हूँ
तब उसका चेहरा खिलखिलाया और बोला-
अब ठीक बोला|
फिर हमारा जमीर जागा,
मैं दौड़ा,
उठा भागा और आवाज लगाई
देखो-देखो ये आया है अतिताई-
फिर खींचकर एक तमाचा मारा,
अतिताई हो गया धरासायी|
फिर हमने मुस्कराया,
अपना पीठ थपथपया,
भरोसे को जगाया
तभी हमने आंतक को भगाया|
- सुषमा सिंह

2 comments:

Amitraghat said...

भाव और विचारमयी कविता......"

सीमा सचदेव said...

itane gahare bhaav itne kam shabdo me vyakt kar diye aapane ab hamaare paas taareef ke liye shabd nahi hai