Saturday, August 27, 2011

इरोम शर्मीला को ‘लेडी अन्ना’ के नाम से संबोधित करना कितना उचित है?

अब अन्ना मात्र एक व्यक्ति न रहकर एक कैरेक्टर बन गए हैं। मैं अन्ना हूँ वाक्य को विज्ञापन के टैग लाइन की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है तथा इस वाक्य को हम कहीं भी सुन, देख और पढ सकते हैं। अखबार से लेकर टेलीविज़न तक हर जगह अन्ना ही अन्ना दिखाई दे रहे हैं। तस्वीरों से समाचारों तक, लेख से अग्रलेख तक, रिपोर्ट से डिबेट तक हर जगह अन्ना ही अन्ना। अन्ना के आंदोलन को गति प्रदान करने तथा जन-जन तक पहुंचाने में मीडिया के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। और योगदान हो भी क्यों न? हो सकता है अन्ना से सब लोग सहमति न रखते हों, परंतु अन्ना द्वारा उठाए गए मुद्दों से शायद ही किसी को असहमति हो? अगर कुछ लोगों को होगी भी तब भी देश की बहुसंख्य आबादी अन्ना के मुद्दों से सहमति रखती है, जिसे हम उनके समर्थन में उमरती भी के रूप में देख सकते हैं। शुरू में कुछ लोग इस जन सैलाब को प्रायोजित कहने की भूल भी कर रहे थे, पर धीरे-धीरे हर किसी को इस जन सैलाब की हकीकत मालूम पड़ गई। हमारे कुछ मीडिया दिग्गज जिनका झुकाव तो सरकार की तरफ ही है पर सड़कों पर उमरते जन सैलाब से वे भी इतने सहम गए हैं कि यथासंभव ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर की तर्ज पर अपनी लेखनी, रिपोर्टिंग तथा एंकरिंग के कार्यों को अंजाम दे रहे हैं।

सब कुछ ठीक है, पर क्या इस सबके बावजूद यह सही है कि इरोम शर्मिला को अन्ना हजारे के बहाने याद किया जाए? क्या यह उचित है कि हम इरोम शर्मीला को लेडी अन्ना के नाम से संबोधित करें? मुझे लगता है ऐसा करके हम इरोम शर्मिला के संघर्ष का मजाक उड़ाएंगे तथा हम उनके संघर्ष को छोटा कर देंगे। ऐसा नहीं कि यह सवाल मैं बिना किसी बुनियाद के उठा रहा हूँ। आज जहां पूरा का पूरा अखबार अन्ना हजारे की खबरों और तस्वीरों से पटा रहता है, वहीं नागपुर से छपने वाले एक अखबार(नवभारत) के कल (26/08/11) के अंक के आखरी पृष्ठ पर इरोम शर्मीला की एक तस्वीर छपती है, जिसका कैप्शन तो इरोम के समर्थन में लिखा गया होता है, परंतु उस तस्वीर के ऊपर लिखा होता हैये है लेडी अन्नाजब इरोम मीडिया से पूरी तरह नदारद दिख रही हैं, ऐसी स्थिति में इरोम शर्मिला के लिए इतना जगह खर्च करने के लिए भी इस अखबार को मेरा सलाम। बस इतनी गुजारिस है कि इरोम शर्मिला को लेडी अन्ना कह कर न संबोधित किया जाए, क्योंकि ऐसा करके हम पिछले दस वर्षों से उत्तर-पूर्वी राज्यों में सैन्य अधिकारियों द्वारा किए जाने वाले शोषण के खिलाफ अनशन पर बैठी इस 34 वर्षीय महिला का केवल मज़ाक उड़ाया जा सकता हैं। यह अलग बात है कि अन्ना द्वारा उठाए गए मुद्दे से देश की अधिसंख्य आबादी सहमत है, परंतु अपने क्षेत्र विशेष के लिए पिछले दस वर्षों से किया जाने वाला इरोम शर्मिला का संघर्ष कहीं ज्यादा बड़ा है। अन्ना के संघर्ष से जिस तरह कुछ ही समय में सरकार परेशान हो गई, काश इतनी ही परेशान इरोम शर्मिला को लेकर हुई होती, तो उत्तर-पूर्वी राज्यों के द्वारा दोयम दर्जे का व्यवहार करने के आक्षेप से तो बचा ही जा सकता था। उत्तर-पूर्वी राज्यों के मेरे कुछ मित्रों का कहना है कि ऐसा सिर्फ इसलिए होता है क्योंकि दिल्ली में बैठी सरकार हमेशा ही हम उत्तर-पूर्वी राज्य वालों के साथ सौतेला व्यवहार करती रही है।

क्या इन आरोपों और परिस्थितियों के लिए हमारी मीडिया जिम्मेद्दार नहीं है? आखिर क्यों सरकार के साथ-साथ यह आरोप मीडिया पर भी नहीं लगाया जाए कि सरकार और मीडिया दोनों के लिए न अन्ना हजारे महत्वपूर्ण हैं, न ही इरोम शर्मिला और ना ही इनके मुद्दे। इनके लिए महत्वपूर्ण है तो सिर्फ अन्ना हजारे और इरोम शर्मिला के पीछे खड़ी भीड़, जो सरकार का वोट बैंक और मीडिया का टीआरपी या रीडरशिप बढा सके।

2 comments:

Anonymous said...

बहुत ही उम्‍दा लेख है विवेक आगे भी जारी रखो और मैं तुम्‍हारी कही गई बातों से पूरी तरह सहमत हूं। अजय

थोकचोम कमला देवी said...

Vivek today I should say you are coming in the right position.By reading your article the people in dark will come to know the strenght and the difference between Annaji and Sharmila Irom.
Anna is fighting for corruption but Sharmila is fighting for life.Without life what is the use of corruption.I should request all the Indians to be free from showing manliness and wish them to be a man a perfect man which can know and see the fact.Thanks