Wednesday, May 18, 2011

बदल गया है गांव !

लंबे अरसे बाद गांव पर कुछ समय बिता रहा हूँ| वर्षों बाद भी गांव में पीपल का पेड़ वहीं है, कदंब का पेड़ भी वहीं है और अशोक का पेड़ भी वहीं है तथा आम के बगीचे में आज भी कोयल की आवाज सुनाई देती है पर गांव अब पहले जैसा नहीं रहा, काफी बदल गया है| एक दशक पहले का गांव कुछ और था तथा आज का गांव कुछ और है| एक दशक पहले जहाँ गांव में कच्ची सड़कें हुआ करती थी, अब पक्की सड़क भी गांव तक पहुँच चुकि है, बिजली आपुर्ती भी गांवों में पहले की अपेक्षा अधिक किया जा रहा है, पहले की झुग्गी-झोपड़ियां अब धीरे-धीरे पक्के मकानों में परिवर्तित हो रही हैं, संचार क्रांति भी गांव के लगभग हर घर तक पहुँच चुका है| मोबाइल फोन की घनघनाहट लगभग हर घर में सूना जा सकता है, तो बहुतायत घरों पर डी.टी.एच. भी देखने को मिल जाता है|

परन्तु गांव के जिस बदलाव की बात मैं कर रहा हूँ उसका एक मात्र कारण विकास नहीं है| आज के गांव की स्थिती उस घर की तरह हो गई है जिस घर में भाई तो होते हैं पर भाईचारा नहीं होता| लोगों के बीच से अपनत्व और प्रेमभाव नदारद नज़र आता है, जो पहले सहजभाव से दिखाई देता था| अधकचड़ा शहरी संस्कृति गांवों में अपना पैर पसारती जा रही है, जिसमें शायद एकाकी और मतलबीपन को फैशन माना जाता है| पहले गांवों का स्मरण आते ही गांवों के मिट्टी की वह खुश्बू हमारे दिलोदिमाग में घुमने लगती थी जिसमें ग्रामिण परिवेश और उसमें मिश्रित वहां के लोगों का आत्मीय संबंध समाहित होता था, पर अब गांवों के मिट्टी की वह खुश्बू भुले-बिसरे यादों की तरह हो गई है| हर कोई जल्द-से-जल्द गांवों को शहर बनाने में लगा हुआ है| सरकार भी गर्व के साथ कहती है कि हमारे देश में शहरी क्षेत्रफल का विस्तार हो रहा है, शहरी जनसंख्या में वृद्धि हो रही है| परन्तु इस विस्तार और वृद्धि में हमें इस बात का भान नहीं कि हमारे जीवन में बनावटीपन घर करते जा रहा है| हम अपने वास्तविक जीवनशैली और दिनचर्या को घर के किसी कोने में रखकर भूल गए हैं|

पर एक बड़ा सवाल यह है कि क्या हमें घर के उस कोने के तलाश की जरूरत नहीं रही या हम घर के उस कोने की तलाश ही नहीं करना चाहते?

गांव के कुछ दरवाजों, चौक-चौराहों तथा छोटे से बाजार पर आज भी मिटिंग होती है| इस 'मिटिंग' शब्द पर कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है कि गांवों में 'मिटिंग'? क्योंकि गांव की बात होते ही लोगों के दिमाग में 'चौपाल' शब्द घुमरने लगता है| परन्तु गांवों के इस 'मिटिंग' में चौपाल जैसी कोई बात बची नहीं है| चौपाल में लोग एक-दूसरे से अपना सुख-दुःख बांटते थे, घर-परिवार की बातें होती थी, खेती-बाड़ी, आपसी सहयोग और गांव-समाज के विकास से संबंधित चर्चाएं होती थी| परन्तु अब होने वाली इस 'मिटिंग' में चर्चाओं का केंद्रबिंदु होता है- आपसी वैमनस्य, आपसी खींचतान तथा एक-दूसरे के साथ व्यक्तिगत खुन्नस| इस मिटिंग में यह चर्चा की जाती है कि कैसे गांव में किसी के बढते कदम को पीछे खिंचा जाए, कैसे एक-दूसरे के बीच लड़ाई-झगड़े पैदा किए जाएं और कैसे सामने वाले को नीचा दिखाया जाए|

सहभागी अवलोकन में एक बात स्पष्ट रूप से सामने आता है कि ग्रामिण परिवेश में आ रहे बदलावों एवं चौपाल जैसी संस्था के नष्ट होने का मूल कारण गांवों में होने वाली गंदी राजनीति है| बेहतर होता अगर इस राजनीति की दिशा सकारात्मक होती| क्या आने वाला समय इस राजनीति की दिशा को सकारात्मक मोड़ दे पाएगा? इस सवाल का जवाब अभी भविष्य के गर्भ में छुपा है और हम सभी उस समय के इंतजार के लिए लाचार हैं|

2 comments:

vikas said...

yaa its 100% true...
i knw gaon very well...3 days b4 i ws also in my gaon...

naren said...

गांव का सही चित्रण किया गया है।