Monday, February 23, 2009

सर्दी की दोपहरी

सर्दी की दोपहरी में
सुशुम से नभ के नीचे
काँप रही धरती थी
शालों में लिपटी हुई
नई नवेली दुल्हन भी
घर से बाहर निकली थी
नजारे तो कुछ ऐसे थे
इस भरे वसुधा के
मानों वे तरस गये हों
थोड़ी सी धूप पाने को!

सर्दी की दोपहरी में
जरा पूछो वैसे लोगों से
जिनके शरीर पे वस्त्र नहीं
गाय,भैंस और बैल के पास भी
जलती रहती आग तो सही
मगर कुछ तो ऐसे लोग हैं
जिनके नसीब यह भी नहीं
काँप रही थरथर बदन
भुलक रहे रोयें हैं
और इस खुली आसमां के नीचे
शरद हुई वसुधा पे
ऐसे बच्चे भी सोये हैं
परिस्थितियों से मजबूर होकर
किसान सर्दी को दूर छोड़कर
हल,बैल और दो रोटी लेकर
खेत में अपने खोए हैं
टपक रहे है पसीना इनके
जैसे पानी से भिगोए हैं
हमने भी सुनी है
बहादुरी यहाँ के विज्ञान की
और एक नहीं अनेक वैज्ञानिकों के भी
नमन तो करती हूँ मैं भी
श्रद्धा से इनकी
लेकिन बस एक प्रश्न है मेरी
क्या अविष्कारें होती हैं सिर्फ
सेठ और साहुकारों के लिए ही?
-Kushboo Sinha
8 th std.
D.A.V. Public School,
Pupri,Sitamarhi

2 comments:

अनिल कान्त said...

बहुत अच्छी रचना लिखी है आपने ...पसंद आई ..यूँ ही लिखते रहिये

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

संगीता पुरी said...

बहुत सही....विज्ञान के विकास से पैसेवालों का ही कल्‍याण हुआ है ...गरीबों का नहीं...महा शिव रात्रि की बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं..