निकले जब हम सफर पे
तो साथ साया भी न था
मगर हम चलते गए और कारवां बदलते गए।
और कारवां बदेलते गए.................
आगाज़ था जर्रा-जर्रा बिखरे थे काटें,फूलों की तरह
मगर हम उन्हें कुचलते गए। और.................
तपती धूप,सेहरा का साथ
न कोई छाया न सर पे कोई हाथ
मगर हम इन हालातों में पलते गए। और......................
खौफ़जदा थे कुछ लोग
और तमाम थे फिकरमन्द
मगर कीचड़ में कमल खिलते गए।
तिस पर भी थी तमाम निगाहें
गुबार भी था और लौ भी
मगर बढाए कदम तो पत्थर भी पिघलते गए। और....................
रुह में दौडे बाप के हुनर
मां के ख्वाब आखों में लिए
हर ख्वाब हकीकत में बदलते गए।
और.....................
दुआओं-बद्दुआओं का हुज़ूम था
निशाना आंख पे और तूफां बहुत
मगर मंजिले मिलती गयीं और कारवां बदलते गए। और.....................
नसीब के बिगडे खेल में
खूब हुई लुका-छिपी
मगर रौशन हुआ दीपक तो अंधेरे सिमटते गए।
और कारवां बदलते गए।
- संदीप कुमार वर्मा
(yesandeep@gmail.com)