Wednesday, March 10, 2010

भारत में वेश्यावृत्तिः कालक्रम और कारण

(यह जिम्मेदार कौन?-2 के आगे की कड़ी है)


भारतीय समाज का कोई भी अंग या इतिहास का कोई काल वेश्याओं या वेश्यावृति से मुक्त नहीं रहा है । इनके विकास का इतिहास समाज के विकास से जुड़ा हुआ है । वैदिक काल की अप्सराएं और गणिकाएं, मध्ययुग में देवदासियां और नगरवधुएं तथा मुगलकाल में वारंगनाएं इसी कड़ी से जुड़ी हुई हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता के खनन के दौरान कांसा की बनी नर्तकी की मुर्ती उस काल में इनकी उपस्थिती को इंगित करती है । प्रारंभ में ये धर्म एवं कलाओं से सम्बध थी । हालांकी ‘पद्मपुराण’ के अनुसार मन्दिरों में नृत्य के लिए जो बालिकाएं क्रय की जाती थी, वे नर्तकियां वेश्याओं से भिन्न नहीं थीं । मन्दिरों में नृत्य हेतु बालिकाएं भेट की जाती थी क्योंकी एसी मान्यताएं थीं कि बालिकाएं भेंट करने वाला स्वर्ग प्राप्त करता है। ‘नगरवधुओं’ को समाज में सम्मान जनक स्थान प्राप्त था, जो राज्य की सबसे उच्च कोटी की नर्तकी हुआ करती थी । उसी तरह ‘देवदासी’ ऐसी स्त्रियों को कहते हैं जिनका विवाह मन्दिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता था । समाज में उन्हें उच्च स्थान प्राप्त होता था और उनका काम मन्दिरों की देखभाल करना तथा नृत्य एवं संगीत सीखना होता था। परंपरागत रूपसे वे ब्रह्मचारी होती थी । इसका प्रचलन दक्षिण भारत में प्रधान रूप से था ।

मध्ययुग में सामतंवाद की प्रगति के साथ इनका अलग-अलग वर्ग बनता चला गया । इसमें से कुछ समूह ऐसे थे जिनकी रूचि कलाप्रियता के साथ कामवासना में बढ़ने लगी । परन्तु कला से सम्बन्धित लोगों के साथ यौनसम्बन्ध सीमित और संयत थे । कालान्तर में नृत्यकला, संगीतकला एवं सीमित यौनसंबन्ध द्वारा जीविकोपार्जन में असमर्थ इन महिलाओं को बाध्य होकर जीविका हेतु लज्जा तथा संकोच को त्याग कर वेश्यावृति के दलदल में उतरना पड़ा ।

वेश्यावृति को बढ़ावा देने में आज आर्थिक कारण प्रमुख भूमिका निभा रहा है । चुंकि रोजगार पाना आज के समय में अत्यन्त श्रमसाध्य कार्य हैं, साथ ही योग्यता के अभाव में या कम योग्य होने पर पैसे भी कम प्राप्त होते हैं, जबकि इस पेशे में पैसे की अधिकता होने के कारण, अधिक विलासितापुर्ण जीवन जीने की इच्छा रखने वाली युवतियां आसानी से स्वत: या दलालों के झांसे में आकर, इस दलदल में फंस जाती है । उत्तरप्रदेश के कानपुर शहर के एक अध्ययन के अनुसार लगभग 65 प्रतिशत वेश्याएं आर्थिक कारण से ही इस पेशे को अपनाती है ।

हालांकि समाज के लिए अभिशाप माने जाने वाले इस पेशे के पिछे सिर्फ आर्थिक कारण न होकर अन्य विभिन्न कारण भी हैं । इस पेशे को अभिशाप इसलिये माना जाता है कि अनेक ऐसे उदाहरण समाज में मिल जाते हैं जो वेश्याओं या सेक्सवर्करों के पीछे अपना ऐश्वर्य, समय, पारिवारिक सुख, मानसिक शान्ति या हम यूं कहें कि अपना सर्वस्व लुटा बैठते हैं । परिवार की संपति धीरे-धीरे सेक्सवर्करों के पीछे बर्बाद कर दिये जाते हैं । परिवार के सदस्यों को खाने के लाले पड जाते हैं । अभावों के बीच उनका जीना दुस्वार हो जाता है । ऐसे पुरुषों के पत्नी, माता-पिता तथा अन्य सदस्यों को भी सामाजिक प्रतारणा झेलनी पड़ती है । धन के अभाव में बच्चों की परवरिश सही ढंग से नहीं हो पाती, परिवार का विकास रूक जाता है । सीधे शब्दों में कहा जाए तो पूरा का पूरा परिवार बिखर जाता है और समाज की प्राथमिक इकाई परिवार के विघटन का दुष्प्रभाव सामाजिक संगठन पर भी पड़ता है ।

सामाजिक कारण भी एक प्रमुख कारण है । समाज ने अपनी मान्यताओं, रूढ़ियों और त्रुटिपूर्ण नीतियों द्वारा इस समस्या को और जटिल बना दिया है। विवाह संस्कार के कठोर नियम, दहेजप्रथा, विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध, सामान्य चारित्रिक भूल के लिए सामाजिक बहिश्कार, छुआ छुत, आवश्यकतानुसार तलाक प्रथा का प्रचलन न होना आदि अनेक कारण सेक्सवर्करों की संख्या तथा उनके पेशे को बढ़ावा देने में सहायक होते हैं । इस पेशे को त्यागने के पश्चात समाज उन्हें सहज रूप में स्वीकार नहीं करता । ऐसी स्त्रियों के लिए हुआ करती हैं ।

युवतियों द्वारा यौनसम्बन्ध को लेकर उन्मुक्तता की इच्छा रखना, विवाहित पुरुषों द्वारा सेक्सवर्करों का इस्तेमाल तथा विवाहेत्तर सम्बन्ध एवं विवाहित स्त्रियों के विवाहेत्तर सम्बन्ध भी इसका कारण है । अन्य कारणों में चरित्रहीन माता-पिता अथवा साथियों का सम्पर्क, घरेलु हिंसा तथा अन्य जगहों पर शारीरिक उत्पिड़न, अश्लील साहित्य, वासनात्मक मनोविनोद और चलचित्रों में कामोत्तेजक प्रसंगों की अधिकता ने भी सेक्सवर्करों के पेशे को बढ़ावा दिया है।

अगर हम राजस्थान का उदाहरण लें तो अभिलेखिय एवं साहित्यिक स्त्रोतों से ज्ञात होता कि प्राचीन काल से प्रचलित दास-दासी प्रथा, 19 वीं सदी के अन्त तक जारी रही । दास - दासी प्रथा के कारण स्त्रियों और लड़कियों की खरीद - फरोख्त प्रचलित थी । दास - दासियों को विवाह में दहेज के साथ देने के अतिरिक्त कुछ सामन्त या सम्पन्न लोग स्त्रियों को रखैल के रूप में रखने के लिए, अपनी काम - पिपासा तृप्त करने के लिए युवा लड़कियों से अनैतिक पेशा करवाने के लिए ‘मेवाड़’ में स्त्रियों का क्रय - विक्रय भी होता था। राज्य के बाहर से भी स्त्रियां खरीदकर लायी जाती थीं। ‘मेवाड़’ में महाराणा शंभूसिंह के शासन काल में पोलीटिकल एजेंट कर्नल ईडन द्वारा इस प्रथा को गैर कानुनी घोषित कर दिया गया । इस प्रकार 19 वीं शताब्दी के अन्त तक स्त्रियों की क्रय-विक्रय प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी थी । परन्तु समाज में बहु-विवाह, रखैल एवं क्रय-विक्रय की प्राचीन प्रथा ने वेश्यावृति को प्रोत्साहित किया। अनेक वेश्याएं भी छोटी उम्र की लड़कियों को खरीद लेती थीं और उनके युवा होने पर उससे वेश्यावृति करवाती थीं । संगीत और नृत्य में निपुण प्रमुख वेश्याओं को राजकीय संरक्षण प्रदान किया जाता था और उन्हें राजकोश से नियमित धन दिया जाता था । अनेक वेश्याएं मन्दिरों में नृत्य-संगित किया करती थी और बदले में उन्हें पुरस्कार आदि मिलता था । सामान्य वेश्याएं नृत्य संगित तथा यौन - व्यापार द्वारा अपना जीवन निर्वाह करती थीं । 20 वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक वेश्यावृति व यौन - व्यापार को समाप्त करने अथवा नियन्त्रित करने की दिशा में भेवाड़ या ब्रिटिश सरकार की तरफ से कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया गया था ।
सिर्फ मेवाड़ या राजस्थान ही उदाहरण नहीं हैं , इतिहास में ऐसे अनेक ठिकाने रहे है जो वेश्यावृति या सेक्सवर्करों के अड्डे के रूप में जाने जाते रहे हैं चाहे वह वाराणसी का ‘दालमण्डी´ हो या सहारणपुर का ‘नक्कासा बाजार’।
बिहार में मुजफ्फरपुर का ‘चतुर्भज स्थान’ और सीतामढ़ी का ‘बोटा टोला’ इसके लिए जाना जाता रहा है । ठीक उसी तरह कोलकत्ता का सोनागाछी, मुम्बई का कमाठीपूरा, दिल्ली का ‘जी.बी.रोड’, ग्वालियर का ‘रेशमपूरा’ तथा पूणे का ‘बुधवार पेठ’ भी इसके प्रमुख केन्द्र रहे हैं ।

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

समस्या का अच्छा एवं संतुलित विश्लेषण !