सी-सैट को लेकर चल रहे आंदोलन के पक्ष में हर कोई खड़ा हो जा
रहा है। भले ही उससे किसी का सीधा सरोकार हो या नहीं हो। परंतु क्या उन सुधिजनों
का ध्यान इस ओर जाता है कि झारखंड केंदीय विश्वविद्यालय (जो एक पिछड़े राज्य में
स्थित है), इंद्रा
गांधी राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाती विश्वविद्यालय, अमरकंटक (जिसकी स्थापना ही अनुसूचित जनजाती के लोगों को
ध्यान में रखकर किया गया है), गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय, बिलासपुर (यह भी एक पिछड़ा क्षेत्र ही है) में शिक्षा का
माध्यम अंग्रेजी भाषा को बनाने का क्या उद्देश्य और औचित्य है, जहां पर अंग्रेजी तो दूर बहुतायत लोगों को
ठीक से हिंदी भी नहीं आती? ये विश्वविद्यालय तो मात्र उदाहरण भर हैं, अगर सूची तैयार की जाए तो इनकी फेहरिस्त काफी लंबी है।
अगर हिंदी क्षेत्र
में स्थित निजी विश्वविद्यालयों की बात की जाए तो ऐसा महसूस होता है जैसे भारत के
भीतर ही कोई दूसरा विश्व बनाने की कोशिश की जा रही है।
फिर सवाल यह उठता
है कि विरोध का स्वर सिर्फ सी-सैट के लिए ही क्यों?
या फिर यह मान लिया
जाए कि सी-सैट के लिए आवाज मुखर करना फैशन भर है और वास्तविक मुद्दो से ऐसे लोगों
का कोई सरोकार नहीं?
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