30 अक्टूबर, 2013 को बहुत दिनों बाद क्रिकेट का पूरा मैच (भारत-ऑस्ट्रेलिया के बीच) देख रहा
था. ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे बेवजह ही अपने जीवन का एक दिन जाया कर दिया. अब
यह कहने में कोई परहेज नहीं, जो सोचता तो बहुत पहले से था पर आज सिद्दत के साथ
महसूस कर रहा हूँ कि आखिर क्या वजह है कि अधिकांश विकसित देशों में क्रिकेट
लोकप्रिय नहीं है? मैं कोई अर्थशास्त्री तो नहीं परंतु आज यह महसूस हो रहा है कि
क्रिकेट की लोकप्रियता की वजह से होने वाले नफे-नुकसान का हिसाब-किताब राष्ट्रीय
स्तर पर होना चाहिय.
हो सकता है ब्रांडिंग और प्रचार-प्रसार के दृष्टिकोण से
भारतीय बाजार के फ्रेम में क्रिकेट बिलकुल फिट बैठता हो, परंतु इसमें कोई संदेह
नहीं कि क्रिकेट हमारे देश की कार्यक्षमता को वृहद् रूप से प्रभावित करता है. अगर
क्रिकेट के एकदिवसीय फॉर्मेट के आधार पर बात करें तो लगभग नौ घंटे करोड़ों लोग
टेलीविजन सेटों से चिपके रहते हैं. अब नौ घंटे में करोड़ों लोगों द्वारा संपादित
कार्यों का उत्पादित परिणाम कितना हो सकता है इसका सही-सही आँकलन तो किसी
अर्थशास्त्री या सक्षम एजेंसी द्वारा ठीक-ठीक किया जा सकता है परंतु एक सामान्य
आँकलन तो कोई भी व्यक्ति कर सकता है. बात इतने में भी खत्म हो जाए तब भी ठीक है परंतु
खेल के समाप्ति के पश्चात भी घर से लेकर ऑफिस तक और स्कूल/कॉलेज जाते बच्चों के
बीच भी खेल पर घंटों परिचर्चा जारी रहती है.
अब कुछ लोग भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता और इसमें लोगों की
दिलचस्पी/पसंद/नापसंद का हवाला देकर मेरी बातों को सीरे से खारिज कर सकते हैं या
फिर मेरी आलोचना भी कर सकते हैं, परंतु मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि आखिर अबतक
ज्यादातर विकसित देशों में क्रिकेट को वह लोकप्रियता क्यों हासिल नहीं है, जो
लोकप्रियता इस खेल को विकासशील और पिछड़े देशों में मिल रही है? या फिर विकसित
देशों की सरकारें क्यों इस खेल को प्रोत्साहित करने से अब तक परहेज कर रही है,
जबकि इस खेल से भी अरबों-खरबों का बाजार जुड़ा हुआ है?
भारत सरकार को भी इस पर मंथन करने की आवश्यकता है और अगर
संभव हो तो क्रिकेट के जरिए आम जनता को अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों से भटकाकर भुलावे
में रखने की बजाए अपनी खेल नीति में बदलाव कर अन्य खेलों को प्रोत्साहित और
लोकप्रिय बनाने की कोशिश होनी चाहिए और इसके जरिए क्रिकेट को हतोत्साहित कर देश की
कार्यक्षमता का बेहतर इस्तेमाल करना चाहिए.
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