Friday, July 8, 2011

मौजूदा राजनीतिक स्थिति और जनमाध्यमों का चरित्र

राजनीति और मीडिया दोनों ही शब्द व्यापक अर्थ लिए हुए है| इन दोनों शब्दों की परिधि में व्यापक जन समूह आता है। राजनीति तथा मीडिया अर्थात जनमाध्यम दोनों ही समाज की उपज है और व्यक्ति चाह कर भी सामाजिक जीवन में व्यक्तिगत जीवन तक कहीं भी राजनीति और जनमाध्यम किसी से खुद को अलग नहीं रख सकता।

आज व्यक्ति के सामाजिक और राजनीतिक जीवन को एक दूसरे से पूर्णत: अलग करना संभव नहीं, हम यह कह सकते है कि यह दोनों अन्योनाश्रित या एक दूसरे के पूरक हैं। किसी भी व्यक्ति का सामाजिक और राजनीतिक दोनों ही जीवन एक दूसरे को प्रभावित करता है तथा एक-दूसरे के स्वरूप को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। जिसमें जनमाध्यमों की महती भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

राजनीति एक प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रिया है। जिसका लक्ष्य निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु सत्ता पर कब्जा करना या आम जन की भावनाओं को अपने पक्ष में करना होता है। राजनीति शब्द के निहितार्थ सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के गतिविधि तक ही सीमित नहीं होते वरन् किसी खास क्षेत्र, संस्कृति, संसाधन तथा बाजार पर अपना कब्जा बनाए रखने के लिए किए जा रहे प्रयास भी राजनीति का ही हिस्सा है विभिन्न देशों द्वारा एक-दूसरे पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए अपनाया जाने वाला हथकंडा भी राजनीति है। उदाहरण के तौर पर दक्षिण एशिया में घुसपैठ बनाने के लिए अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान पर किया गया हमला तथा रसायनिक हथियारों के बहाने लड़े गए इराक युद्ध को ले सकते हैं इसके अन्य उदाहरण रूस द्वारा क्यूबा को लगातार दिया जाने वाला मदद तथा चीन द्वारा पाकिस्तान को आँख मूंद कर किया जा रहा सहयोग है।

यहां जनमाध्यमों का चरित्र देखने लाय है। वर्तमान समय में जनमाध्यमों की स्थिति यह हो गई है कि कोई भी इसका प्रयोग टूल के रूप में करने की सोचे उससे पहले जनमाध्यम खुद टूल के रूप में प्रयोग होने के लिए अपने को प्रस्तुत कार देता है। इराक युद्ध के समय एम्बेडेड जर्नलिज्म इसका एक उदाहरण मात्र है पर सवाल यह है कि क्या ऐसी गलतियों से मीडिया सीखने की कोशिश करता है?

इसके अतिरिक्त किसी खास क्षेत्र, वर्ग समूह द्वारा अपने अस्तित्व, हित एवं मांगों को लेकर किए जा रहे संघर्ष एवं गतिविधि भी राजनीति का ही हिस्सा है। उदाहरण स्वरूप यद्यपि हम विभिन्न प्रतिबंधित संगठनों जैसे - माकपा (माले), सिम्मी आदि की अनेक गतिविधियों यथा हिंसात्मक रूप, उन्मादी गतिविधि एवं अनेक भाषाई समूह द्वारा किए जा रहे हिंसा को किसी भी रूप से सही नहीं ठहरा सकते पर वह भी राजनीति का हिस्सा है, चाहे हम उसे नकारात्मक राजनीति का ही नाम दें। हाँ, एक बात जरूर ध्यान देने योग्य है कि इन मामलों में हमारे जनमाध्यमों का चरित्र दागदार है, जिसका इस्तेमाल एक खास विचारधारा के तथाकथित पैरोकारों और राजनीतिज्ञों द्वारा स्वहित साधते हुए से समूहों को गुमराह करने के लिए किया जाता है। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इसके पीछे भी जनमाध्यमों का अपना `हिडेन ऐजेन्डा´ होता है और उसी ऐजेन्डे की पूर्ति हेतु ऐसे राजनीतिज्ञों तथा खास विचारधारा के तथाकथित पैरोकारों को जगह दी जाती है।

पर किसी भी मसले का केवल शब्दों तक सिमटकर रह जाना अल्पीकार ही नहीं बल्कि संवेदनहीनता की पराकाष्ठा होगी। सच्चाई यही है कि वर्तमान समय में राजनीति का प्रवेश हर जगह हो चुका है, चाहे वह सत्ता की बागडोर के लिए हो, वर्चस्व के लिए हो, बाजार पर कब्जे के लिए हो या फिर मीडिया वर्चस्व के लिए।

राजनीति के इन सभी पहलुओं को जेहन में रखते हुए अगर हम जनमाध्यमों के चरित्र पर ध्यान दें तो भारतीय संदर्भ में हम कह सकते हैं कि जनमाध्यम अपने शुरूआती लक्ष्य `जनसरोकार´ से भटक रहे हैं। बेचने का गु और खरीदने की मजबूरी जनमाध्यमों को अपने चंगुल में करती जा रही है। सभी जनमाध्यमों का राजनीतिक नियंत्रण और व्यवसायिक लाभ के लिए दुरूपयोग किया जा रहा है। आज जनमाध्यमों से सांस्कृतिक खबरें एक सिरे से गायब होती जा रही है। जनमाध्यमों में सांस्कृतिक दृष्टि के साथ-साथ वास्तविक खबरों की बानगी भी यही है। पिछले दशक में अश्लीलता का हमला सभी जनमाध्यमों पर एक भूखे अजगर की तरह था। आज हमारी मीडिया पुलिस, व्यवस्था तथा सत्ता के दलाल के रूप में चिन्हित की जा रही है। वर्तमान समय में मीडिया और राजनीति का गठजो कई बार तो साफ-साफ दिखने लगता है।

क्रमश:...

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