यह पोस्ट 'मौजूदा राजनीतिक स्थिति और जनमाध्यमों का चरित्र' के आगे की कड़ी है-
कुछ समय पूर्व आए एक सर्वे में यह बताया गया कि जनमाध्यमों में 70 प्रतिशत से अधिक जगह सिर्फ राजनीतिक खबरें पाती हैं। यह सर्वविदित है कि सूचना क्रांति के वर्तमान दौर में मीडिया पहले से ज्यादा ताकतवर हो गया है तथा यह अब पहले से अधिक लोगों तक पहुंचने लगा है। क्षेत्रीय चैनलों और समाचारपत्रों के विस्तार और विकास के कारण मीडिया या जनमाध्यमों की पहुंच पहले से अधिक वढ़ी है, जिसमें बढ़ती साक्षरता दर का भी योगदान रहा है। बढ़ते प्रभाव क्षेत्र के बनिस्पत जनमाध्यम (मीडिया) जनमत निर्माण प्रक्रिया में अपनी भूमिका सशक्त रूप सक निभा रहा है। मीडिया के इस बढ़ते प्रभाव और ताकत के कारण ही राजनीतिक दल इसके इस्तेमाल में रूचि लेने लगे हैं। हालांकि चुनावों में जनमाध्यमों के बढ़ते इस्तेमाल का एक कारण धनकुबेरों का राजनीति में प्रवेश तथा कालेधन की बहुलता भी है, जनमानस को अपने पक्ष में करने के लिए जनमाध्यम के हर स्वरूप यथा-प्रिन्ट, इलेक्ट्रानिक एवं युवा पीढी को ध्यान में रखते हुए वेब पर भी ये धनकुबेर एवं राजनीतिक पार्टियां पैसे लुटाने को तैयार रहती हैं। इन्हीं पैसों की खनक से बने मधुर संगीत के कारण जनमाध्यमों का चरित्र और इमान डोलने लगता है।
इलेक्ट्रानिक चैनलों की बाढ़ से राजनीतिज्ञों को अपनी बात कहने का अधिक मौका मिलने लगा है। इसके पीछे बाजार भी एक कारण है। मीडिया के लिए राजनीति ने भी दरवाजे खोल दिए हैं। राजनीतिज्ञ टीवी. स्क्रीन पर बिकाऊ पात्र होता है। राजनीतिज्ञ मीडिया के लिए ब्राण्ड एम्बेस्डर बन गए है। जिस तरह बाजार में हर वस्तु के लिए ब्राण्ड एम्बेस्डर होता है ठीक उसी तरह हर अखबार और चैनल के लिए अलग पार्टी एवं राजनीतिज्ञ ब्राण्ड एम्बेस्डर है। मीडिया भी उनका दोहन करती है। इन राजनीतिज्ञों के बहाने वास्तविक खबरों के पैकेज पर आने वाला उनका खर्च बच जाता है।
देश की जनता कि लिए राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों को जानने का सबसे बड़ा माध्यम आज भी मीडिया है चाहे वह प्रिन्ट हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया। वर्तमान मीडिया या जनमाध्यम, राजनीतिक पार्टियों एवं राजनीतिज्ञों की छवि बनाने या बिगाड़ने का प्रयास अपने हित को ध्यान में रखते हुए करती है। हालांकि उसका एक ठोस आधार भी होता है। जनमाध्यमों का चरित्र यहां भी देखने लायक है कि सत्ता बदलने के साथ-साथ जनमाध्यमों का सुर भी बदल जाता है और जब जनता की ओर से विरोध या प्रतिकार शुरू होता है तो वह भी उसमें शमिल हो जाता है। साठ और सत्तर के दशक में मीडिया इतना ताकतवर नहीं था, जितना आज है। यही वजह है कि पहले की अपेक्षा आज राजनैतिक गतिविधियों को लेकर मीडिया अधिक उत्साहित रहती है।
जनमाध्यमेां की श्रृंखला का सबसे नया सदस्य `डॉटकाम´ अर्थात न्यूमीडिया है। जनमाध्यम के रूप में यह संभावानाओं का नया रास्ता है और इसका इस्तेमाल भी राजनीतिक पार्टियां एवं राजनीतिज्ञ बखूबी कर रहे हैं। `नेटीजनों´ से सीधे संवाद स्थापित करने के पहल इनके द्वारा किया जा चुका है, जिसके लिए वेबसाइटों का निर्माण भी लगातार जारी है। इसमें अग्रणी भूमिका लालकृष्ण आडवाणी निभा रहे हैं, जिनकी वेबसाइट आत्मप्रचार का माध्यम भर है।
कई बार किसी राजनैतिक गलती को छुपाने के लिए राजनेताओं या राजनैतिक पार्टियों द्वारा मीडिया के माध्यम से ऐसी खबरों को हवा दी जाती है जो आम जनता को गुमराह करने का कार्य करती है। मीडिया के चरित्र के आकलन के लिए हम अगर चुनाव का उदाहरण लें तो यह बात सामने आती है कि अखबारों में उसी उम्मीदवार की खबरें लगती हैं जिसने खबर लगवाने के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कीमत चुकाई हो। जिसे पेड न्यूज कहा जाता है। आज खबरें बिकने लगी हैं और पत्रकार की कलम की धार उतनी ही तेज होती है जितनी कि उसे कीमत चुकाई जाती है।
जनमाध्यमों के इस बिकाउपन ने वास्तव में जनमाध्यमों के स्तर को गिरा दिया है। कभी शिक्षा और विकास का औजार बनकर उभरा टेलीविजन आज राजनीतिज्ञों के लिए खिलौना बना हुआ है। कुछ समय पहले बी.बी.सी के हिन्दी सेवा प्रभाग द्वारा कराये गए सर्वे में 67 प्रतिशत लोगों ने माना कि आज के जनमाध्यम गुमराह हैं।
इन सभी चीजों के बावजूद जनमाध्यमों की अपनी राजनीति है जो हर तरह की राजनीति पर हावी है। आज ग्लोबलाईजेशन के दौर में बाजार का दबाव झेल रही मीडिया बाजार के प्रति जिम्मेदार जरूर दिख रही है फिर भी ये जनमाध्यम सिर्फ प्रपंच नहीं बल्कि सरपंच की भूमिका में हैं। इसने जीवन के बहुत सारे उपेक्षित और अनदेखे प्रश्नों को संज्ञान में लिया है चाहे वह- जेसिकालाल हत्याकांड हो, प्रियदर्शनी मट्टू का मामला हो, नीतीश कटारा हत्याकांड हो या फिर बोरवेल में गिरा प्रिन्स। जनमाध्यमों ने गूंगों को वाणी दी है, कुकर्मो का भण्डाफोड किया है, राजनीति एवं अपराध के गठजोड़ को सार्वजनिक किया है और आम आदमी को मुख्यधारा में लाने में अग्रणी भूमिका निभाई है। जनमाध्यमों को कमजोर करने के उद्देश्य से राजनीतिक-प्रशासनिक गठजोड़ ने इसे अपने साथ जोड़ने और जरूरत पड़ने पर कब्जे में भी करने की कोशिश की। यद्यपि यदा-कदा उसे इसमें कुछ सफलता भी मिली लेकिन यह सफलता स्थायी नहीं रही। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि मीडिया बिकाऊ नहीं है, लेकिन मीडिया की मुश्किल यह है कि वह चुप नहीं रह सकता बोलना उसका स्वभाव है और विवशता भी। अगर वह बोलना बन्द करता है तो उसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और प्रतिस्पर्धा के इस दौर में हर कोई अपने अस्तित्व की रक्षा चाहता है। हाँ जनमाध्यमों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता के अस्तित्व के साथ ही उसका भी अस्तित्व जुड़ा है।
इन सभी पहलुओं के बीच एक बात जो निकलकर सामने आती है वह यह कि न सिर्फ राजनीतिक दृष्टिकोण वरन् सभी दृष्टिकोणों से जनमाध्यमों के वर्तमान चरित्र के पीछे का कारण यह है कि भारतीय जनमाध्यम अभी संक्रमण दौर से गुजर रहा है और हम उम्मीद कर सकते हैं कि समय के साथ भारतीय मीडिया भी परिपक्व होगा।
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