"सब गंदा है पर धंधा है|"
आई.पी.एल. यानी बीसीसीआई के आधिकारिक भाषा में कहें तो- 'इंडियन प्रिमियर लीग', आलोचकों की भाषा में कहें तो- बीसीसीआई को पैसा चाहिए भाई पैसा, यानी 'इंडियन पैसा लीग', 'इंफोटेंमेंट मीडिया' की भाषा में कहें तो- आई.पी.एल. की कई ऐसी टीमें हैं जिनकी बागडोर पत्नियों या प्रेमिका के हाथों में है, यानी 'इंडियन पत्नि लीग'| बीसीसीआई यानी सामान्य अर्थों में कहें तो भारत में क्रिकेट को नियंत्रित करने वाली संस्था| थोड़े से भिन्न शब्दों में कहें तो भारत के क्रिकेट कारोबार पर आधिपत्य रखने वाली एक मात्र कारपोरेट संस्था|
अब आई.पी.एल. की शुरूआत कैसे हुई इस कहानी से हम सभी वाकिफ हैं| पर बीसीसीआई ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिस आई.पी.एल. को वह भारत में उसके क्रिकेट साम्राज्य को चुनौती देने वाले सुभाष चंद्रा के आई.सी.एल.(इंडियन क्रिकेट लीग) से खौफ खाकर उसके विरूद्ध खड़ा कर रही है वही आई.पी.एल. उसके लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी साबित होगी| अब यह मुर्गी तो सोने से भी अधिक चमकदार हो गई है, परन्तु इस मुर्गी के जीवन के कुछ पहलुओं तथा इसके पालक(बीसीसीआई) के भूमिका की समिक्षा आवश्यक है| आई.पी.एल. में मात्र एक बात जो बहुत शानदार है वह यह कि इसकी अवधारणा में क्षेत्रवाद जैसी कोई बात नहीं है| यहां हम एक ही टीम में शहर, देश-दुनिया की सीमाओं को परे रखते हुए, जिस टीम का नामकरण किसी-न-किसी शहर या राज्य के नाम के आधार पर किया गया है, देश के विभिन्न हिस्सों से आए खिलाड़ियों तथा विदेशी खिलाड़ियों को साथ-साथ खेलते देख सकते हैं| जिसके आधार पर हम नेशनल इंटीगिरिटी ही नहीं इंटरनेशनल इंटीगिरिटी की बात कर सकते हैं| पर यहां सवाल यह भी उठता है कि अगर झारखण्ड की कोई टीम नहीं है और वहां का कोई खिलाड़ी चेन्नई के तरफ से खेल रहा है, यहां तक तो ठीक है, परन्तु किसी शहर या राज्य के नाम पर टीम होने के बावजूद वहां का कोई खिलाड़ी दूसरे शहर या राज्य के नाम के आधार पर बनाई टीम में खेल रहा है तब किसी शहर या राज्य विशेष के नाम के आधार पर टीम के नामकरण का क्या औचित्य है?
सिर्फ इसलिए कि उस शहर या राज्य विशेष के लोगों को उस टीम के साथ भावनात्मक रूप से जोड़ा जा सके और फिर उसकी मार्केट वैल्यू लगाई जा सके? माना कि आई.पी.एल. चौकों-छक्कों की बरसात, विकेटों के पतन तथा रोमांच का नाम है, परन्तु इन सबके बहाने आम क्रिकेट प्रेमियों के भावनाओं की कीमत लगाने की इजाजत नहीं दी सकती| दूसरी बात यह कि जिस आई.पी.एल. के टीम निर्माण की प्रक्रिया खिलाड़ियों के खरीद-फरोख्त पर आधारित है, क्या वह खरीद-फरोख्त की प्रक्रिया खिलाड़ियों को मैच-फिक्सिंग जैसे कार्यों के लिए प्रेरित नहीं करती? इधर आई.पी.एल. में एक नया विवाद दक्षिण अफ्रीकी चीयर लीडर गेबरियेला पास्क्वालोटो के ब्लॉगिंग से उठ खड़ा हुआ| जिसमें दक्षिण अफ्रीकी चीयर लीडर ने यह आरोप लगाया कि आई.पी.एल. की लेट नाईट पार्टियों में क्रिकेटर बदतमीजी की हद पार कर जाते हैं, जिसमें कई तो अपने कमरे में आने का ऑफर तक दे डालते हैं और यह सब भी तब जब इन पार्टियों में जगह-जगह कैमरे लगे होते हैं| वैसे तो बीसीसीआई इन लेट नाईट पार्टियों पर लगाम की बात तो करती है, परन्तु कहा यह जाता है कि बीसीसीआई इन पार्टियों को जानबूझकर इसलिए नजरअंदाज करती है क्योंकि ये पार्टियां भी छुपे रुप में आई.पी.एल. तथा उनकी टीमों के पब्लिसिटी कैम्पेन का हिस्सा है| परन्तु जिस तरह के आरोप चीयर लीडर गेबरियेला के द्वारा लगाए गए हैं क्या वह भारतीय संस्कृति से मेल खाती है? अगर नहीं तो जिन क्रिकेटरों को उनके करोड़ों भारतीय प्रसंशक सर-आंखों पर बिठा कर रखते हैं उन पर इनकी करनियों का प्रभाव नहीं पड़ेगा? क्या इससे भारतीय युवा वर्ग में उत्श्रृंखलता का प्रसार नहीं होगा? अगर हाँ, तो क्या बीसीसीआई की भारतीय समाज और संस्कृति के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है?
इतना ही नहीं इस घटना को दबाने के लिए ब्लॉगिंग के बहाने आई.पी.एल. के दूसरे पक्ष को दुनिया के सामने लाने वाली चीयर लीडर को आनन-फानन में बाहर का रास्ता दिखाते हुए स्वदेश वापस भेज दिया गया| आरोप यह लगाया गया कि वह क्रिकेटरों की निजी जानकारियों को सार्वजनिक कर रही थी| उस चीयर लीडर गेबरियेला का आरोप है कि उसे अपनी बात रखने का मौका तक नहीं दिया गया तथा उसके साथ इस तरह व्यवहार किया गया जैसे वह कोई अपराधी हो| तो क्या क्रिकेटरों को इन पार्टियों में कुछ भी करने का अधिकार है और गेबरियेला जैसी लड़कियों को अपनी बात रखने का अधिकार भी नहीं?
कहीं ऐसा तो नहीं कि बीसीसीआई इस फॉरमुले पर चल रही है-
"सब गंदा है पर धंधा है|"
आई.पी.एल. यानी बीसीसीआई के आधिकारिक भाषा में कहें तो- 'इंडियन प्रिमियर लीग', आलोचकों की भाषा में कहें तो- बीसीसीआई को पैसा चाहिए भाई पैसा, यानी 'इंडियन पैसा लीग', 'इंफोटेंमेंट मीडिया' की भाषा में कहें तो- आई.पी.एल. की कई ऐसी टीमें हैं जिनकी बागडोर पत्नियों या प्रेमिका के हाथों में है, यानी 'इंडियन पत्नि लीग'| बीसीसीआई यानी सामान्य अर्थों में कहें तो भारत में क्रिकेट को नियंत्रित करने वाली संस्था| थोड़े से भिन्न शब्दों में कहें तो भारत के क्रिकेट कारोबार पर आधिपत्य रखने वाली एक मात्र कारपोरेट संस्था|
अब आई.पी.एल. की शुरूआत कैसे हुई इस कहानी से हम सभी वाकिफ हैं| पर बीसीसीआई ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिस आई.पी.एल. को वह भारत में उसके क्रिकेट साम्राज्य को चुनौती देने वाले सुभाष चंद्रा के आई.सी.एल.(इंडियन क्रिकेट लीग) से खौफ खाकर उसके विरूद्ध खड़ा कर रही है वही आई.पी.एल. उसके लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी साबित होगी| अब यह मुर्गी तो सोने से भी अधिक चमकदार हो गई है, परन्तु इस मुर्गी के जीवन के कुछ पहलुओं तथा इसके पालक(बीसीसीआई) के भूमिका की समिक्षा आवश्यक है| आई.पी.एल. में मात्र एक बात जो बहुत शानदार है वह यह कि इसकी अवधारणा में क्षेत्रवाद जैसी कोई बात नहीं है| यहां हम एक ही टीम में शहर, देश-दुनिया की सीमाओं को परे रखते हुए, जिस टीम का नामकरण किसी-न-किसी शहर या राज्य के नाम के आधार पर किया गया है, देश के विभिन्न हिस्सों से आए खिलाड़ियों तथा विदेशी खिलाड़ियों को साथ-साथ खेलते देख सकते हैं| जिसके आधार पर हम नेशनल इंटीगिरिटी ही नहीं इंटरनेशनल इंटीगिरिटी की बात कर सकते हैं| पर यहां सवाल यह भी उठता है कि अगर झारखण्ड की कोई टीम नहीं है और वहां का कोई खिलाड़ी चेन्नई के तरफ से खेल रहा है, यहां तक तो ठीक है, परन्तु किसी शहर या राज्य के नाम पर टीम होने के बावजूद वहां का कोई खिलाड़ी दूसरे शहर या राज्य के नाम के आधार पर बनाई टीम में खेल रहा है तब किसी शहर या राज्य विशेष के नाम के आधार पर टीम के नामकरण का क्या औचित्य है?
सिर्फ इसलिए कि उस शहर या राज्य विशेष के लोगों को उस टीम के साथ भावनात्मक रूप से जोड़ा जा सके और फिर उसकी मार्केट वैल्यू लगाई जा सके? माना कि आई.पी.एल. चौकों-छक्कों की बरसात, विकेटों के पतन तथा रोमांच का नाम है, परन्तु इन सबके बहाने आम क्रिकेट प्रेमियों के भावनाओं की कीमत लगाने की इजाजत नहीं दी सकती| दूसरी बात यह कि जिस आई.पी.एल. के टीम निर्माण की प्रक्रिया खिलाड़ियों के खरीद-फरोख्त पर आधारित है, क्या वह खरीद-फरोख्त की प्रक्रिया खिलाड़ियों को मैच-फिक्सिंग जैसे कार्यों के लिए प्रेरित नहीं करती? इधर आई.पी.एल. में एक नया विवाद दक्षिण अफ्रीकी चीयर लीडर गेबरियेला पास्क्वालोटो के ब्लॉगिंग से उठ खड़ा हुआ| जिसमें दक्षिण अफ्रीकी चीयर लीडर ने यह आरोप लगाया कि आई.पी.एल. की लेट नाईट पार्टियों में क्रिकेटर बदतमीजी की हद पार कर जाते हैं, जिसमें कई तो अपने कमरे में आने का ऑफर तक दे डालते हैं और यह सब भी तब जब इन पार्टियों में जगह-जगह कैमरे लगे होते हैं| वैसे तो बीसीसीआई इन लेट नाईट पार्टियों पर लगाम की बात तो करती है, परन्तु कहा यह जाता है कि बीसीसीआई इन पार्टियों को जानबूझकर इसलिए नजरअंदाज करती है क्योंकि ये पार्टियां भी छुपे रुप में आई.पी.एल. तथा उनकी टीमों के पब्लिसिटी कैम्पेन का हिस्सा है| परन्तु जिस तरह के आरोप चीयर लीडर गेबरियेला के द्वारा लगाए गए हैं क्या वह भारतीय संस्कृति से मेल खाती है? अगर नहीं तो जिन क्रिकेटरों को उनके करोड़ों भारतीय प्रसंशक सर-आंखों पर बिठा कर रखते हैं उन पर इनकी करनियों का प्रभाव नहीं पड़ेगा? क्या इससे भारतीय युवा वर्ग में उत्श्रृंखलता का प्रसार नहीं होगा? अगर हाँ, तो क्या बीसीसीआई की भारतीय समाज और संस्कृति के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है?
इतना ही नहीं इस घटना को दबाने के लिए ब्लॉगिंग के बहाने आई.पी.एल. के दूसरे पक्ष को दुनिया के सामने लाने वाली चीयर लीडर को आनन-फानन में बाहर का रास्ता दिखाते हुए स्वदेश वापस भेज दिया गया| आरोप यह लगाया गया कि वह क्रिकेटरों की निजी जानकारियों को सार्वजनिक कर रही थी| उस चीयर लीडर गेबरियेला का आरोप है कि उसे अपनी बात रखने का मौका तक नहीं दिया गया तथा उसके साथ इस तरह व्यवहार किया गया जैसे वह कोई अपराधी हो| तो क्या क्रिकेटरों को इन पार्टियों में कुछ भी करने का अधिकार है और गेबरियेला जैसी लड़कियों को अपनी बात रखने का अधिकार भी नहीं?
कहीं ऐसा तो नहीं कि बीसीसीआई इस फॉरमुले पर चल रही है-
"सब गंदा है पर धंधा है|"
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