महंगाई हर रोज नई ऊंचाई को छू रहा है। लोग यह असफल कोशिश करने लगे हैं पेट्रोल, डीजल, मिट्टी तेल, रसोई गैस आदि खरीदते समय उनकी कीमत्तों पर ध्यान नहीं दिया जाए। ज़्यादातर सड़के ऐसी हैं जिनपर आधे किलोमीटर का सफर बिना गड्ढे के पूरा नहीं किया जा सकता। महंगाई रूपी दानव अपना मुख इतना बड़ा कर चुकी है कि गरीबों के लिए नमक के साथ भी दो जून कि रोटी असंभव होता जा रहा है। ऐसा भी नहीं कि माध्यम वर्गीय परिवार दैत्याकार महंगाई के कहर से अछूता है। खाना तो इन्हें मिल रहा है, परंतु हरी सब्जियाँ इनके भी सिर्फ सपनों मे आती है। सब्जियों के नाम पर सुखी सब्जियों और चटनियों से ही काम चलाना पड़ रहा है।
उपरोक्त सारी परिस्थितियों के बावजूद सरकार कहती है कि हम इस पर लगातार नजर बनाए हुए हैं और सरकार की कोशिश है कि जल्द से जल्द इस पर काबू पाया जा सके। पर हमारी सरकार ध्यान तब दे ना जब उसे राजनीतिक दाव-पेंच से फुरसत मिले? फिर विचारणीय प्रश्न यह है कि आम जनता जिसकी कमर महंगाई के बोझ से पहले ही टूट चुकी है, वह टूटे हुए कमर के सहारे भारी-भरकम सरकारी टैक्स का बोझ कैसे ढोए और क्यों ढोए? सारी मुसीबत उसी आम जनता के सिर क्यों जो वैध तरीके से जीवन-यापन कर रही है। क्योंकि जीवन जीने के लिए अवैध तरीके अपनाने वालों के लिए तो न महंगाई का कोई मतलब है और न ही उन्हें सरकारी टैक्स भरने का कोई झंझट। फिर जिस देश में (कार्मिक राज्य मंत्री वी. नारायण सामी द्वारा बुधवार दिनांक 23-11-2011 को लोकसभा में दी गई जानकारी के अनुसार) पिछले तीन वर्षों में सीबीआई ने 450 प्रथम श्रेणी अधिकारी के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए हों,अभी 943 मामलों की जांच चल रही हो, 167 मामलों में जांच के लिए सरकार को लिखित प्रस्ताव मिला हो, उस देश में अवैध तरीके अपनाने वालों के डरने का क्या कारण हो सकता है, जब भ्रष्टाचार के 90 प्रतिशत से ज्यादा मामलों मे शिकायतकर्ताओं को न्याय नहीं मिल पाता है?
फिर सारा का सारा ठीकरा उस आम आदमी के सर ही क्यों जो हमारे संविधान, सरकार और व्यवस्था में विश्वास कायम रखते हुए, वैध तरीके से जीवन जीने की कोशिश कर रहा है? सालाना एक लाख साठ हजार से नीचे कमाने वालों की बात तो छोड़ ही दें, जैसे ही कोई इस जादुई आंकड़े को पार करता है, इससे अधिक की कमाई पर कम से कम अपनी मेहनत की कमाई का दस प्रतिशत सीधे सरकारी खजाने के नाम करना पड़ता है। इसके बाद वह नमक-माचिस खरीदे या दाल-रोटी वहाँ भी टैक्स देना पड़ता है। बदले में सरकार न सभी को शुद्ध पानी मुहैया करा पा रही है, न ही बिजली। सड़कों में तो ज्यादातर की स्थिति ऐसी है कि यह कहना मुश्किल कि सड़क पर गड्ढे हैं या गड्ढों में सड़क। शिक्षा कि तो बात करना ही बेमानी है। सरकार का उद्देश्य है लोगों को साक्षर बनाना, न कि शिक्षा के माध्यम से उसे जीवन जीने के काबिल बनाना। कहने में परहेज नहीं होना चाहिए कि हमारी शिक्षा व्यवस्था पर परोक्ष रूप से निजी शिक्षण संस्थाओं का कब्जा है। वर्तमान में अपराध और भ्रष्टाचार पर काबू पाना सरकार के बूते से बाहर दिखाई दे रहा है। फिर क्या जनता को यह पूछने का हक नहीं कि क्यों दें हम सरकार को टैक्स?
सिर्फ इसलिए कि नेता जी टैक्स के रूप में जमा इन रुपयों को अपने निजी खातों तक पहुंचा सकें? जिससे उनके बच्चे इन पैसों को बिसलरी की बोतलों पर बहा सकें, हवाई यात्राएं कर सकें? महानगरों में इनके फ्लैट/बंगले/मार्केटिंग कॉम्प्लेक्स बन सके? इनके बच्चे विदेश जा कर पढ़ाई कर सकें? बावजूद इसके भी अगर पैसे बच जाएँ तो पैसे खर्च करने के ढेरों तरीके हैं।
आखिर में सवाल वही बच जाता है कि फिर क्यों दें हम सरकार को टैक्स?
2 comments:
aap ka sawal bilkul jayaj hai bhaiya
yaa realy,its tym f thnkng abt dese thngs...
bt all d ppl f ds cntry r busy in their own work,thnx vivek bhaiya 2 post ds typ f notice in protest f ds crupt govmnt...
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