"दिल्ली में त ताबड़तोड़ वोट हो रहल हईं हो, बिहार के की चल रहल हईं?" कुछ इसी तरह के सवाल लोग जगह-जगह एक दूसरे से पूछते देखे गए थे, जब कुछ दिनों पहले बिहार के उपर राजनीतिक संकट के बादल छाए थे. देश भर की नजरें दिल्ली चुनाव पर जरूर टिकी रही परंतु इसी बीच बिहार का राजनीतिक पारा भी अपने चरम पर रहा.
हर पल राजनैतिक घटनाक्रम करवट ले रही थी. राज्य भर में हर किसी की नीगाहें मीडिया पर टिकी हुई थीं कि राजनैतिक गलियारों से पता नहीं कब, कौन सी खबर छन कर बाहर आ जाए. समान्य दिनों में जैसे-तैसे एक अखबार पढ़ने वाले लोग भी कई-कई अखबारों के पन्ने पलट रहे थे. उस दौरान लोग अखबारों के बाद टेलीविजन चैनल के माध्यम से अपनी उत्सुकता कम करने में लगे रहे. परंतु समय बीतने के साथ-साथ लोगों की उत्सुकता घटने की बजाए बढ़ती ही जा रही थी।
कभी लग रहा था कि नीतीश-मांझी मुलाकात के बाद जद (यू) और सरकार दोनों ही मझधार से निकल जाएगी, तो कभी लगता था कि राष्ट्रिय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव कोई बीच का रास्ता सुझाएंगे, तो कभी लगता था कि साईकल पर सवार हो कर कोई आयातित आइडिया ही आ जाए. परंतु सब अनुमान धरे के धरे रह गए. जनता दल (यू), भारतीय जनता पार्टी और तत्कालिन सरकार के खेवनहार, भाजपा की नई उम्मीद तथा जदयू व नीतिश कुमार के गले की फांस जीतन राम मांझी अपना-अपना खेल खेलने में लगे हुए थे. परंतु संख्या बल के सामने सब को नतमस्तक होना पड़ा. मांझी जी को अपनी सरकार बचाने की कवायद को समय से पहले विराम देना पड़ा. भाजपा की स्थिति उस टीम की तरह हो गई, जब किसी टीम का भविष्य इस बात पर टिका होता है कि आगे दो अन्य टीमों के होने वाले मैच का विजेता कौन होगा और वह बहुप्रतिक्षित मैच बारीश से धुल जाता है. जनता दल परिवार के खेमे में विजयी मुस्कान फैल गई.
इन सब के बीच आम जनता के साथ-साथ सबसे बड़ी राहत भरी सांस ली बिहार के पत्रकार बंधुओं ने, जिनका बिहार में चल रहे राजनीतिक ड्रामें के चलते पिछले एक पखवारे से अधिक समय से जीना मुहाल हो गया था. कुछ का दर्द तो यह था कि उन्होंने हफ्ते भर से अपना मोजा तक नहीं बदला था.
लेकिन अब होली का रंग तो उतरा ही चुका है, बिहार के राजनीतिक गलियारों में भी शांति छायी हुई है.