Wednesday, September 5, 2012

मैं हूं सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट

Kulwant Happy : युवा सोच युवा खयालात से साभार

सरकार अपनी नाकामियों का ठीकरा मेरे सिर फोड़ रही है। मैं हूं सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट। मैं किस से कहूं अपने दिल की बात। सब कहते हैं मेरे द्वारा दुनिया भर से अपने दिल की बात। मैं दुखी हूं, जब कोई मेरे खिलाफ बयान देता है। भारतीय सरकार एवं भारतीय मीडिया तो मेरे पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं, जबकि देश की सरकार एवं कई मीडिया संस्‍थानों के बड़े धुरंधर मेरे पर आकर अपना उपदेश जनता को देते हैं। खुद को ब्रांड बनाने के लिए मेरा जमकर इस्‍तेमाल करते हैं। फिर भी आज वो ही मुझ पर उंगलियां उठा रहा है, मुझ पर आरोपों की झाड़ियां लगा रहा है, जो मीडिया कभी लिखता था मैंने कई साल पहले बिछड़े बेटे को मां से मिलवाया एवं मैंने असहाय लोगों को बोलने का आजाद मंच प्रदान किया, आज वो मीडिया भी मेरी बढ़ती लोकप्रियता से अत्‍यंत दुखी नजर आ रहा है। शायद उसकी ब्रेकिंग न्‍यूज मेरे तेज प्रसारण के कारण आज लोगों को बासी सी लगने लगी है और मेरा बढ़ता नेटवर्क उसकी आंख में खटकने लगा है।

मेरे पर मीडिया कर्मियों, नेताओं और आम लोगों के खाते ही नहीं, फिल्‍म स्‍टारों के भी खाते उपलब्‍ध हैं, कुछ मीडिया वालों ने तो मेरे पर लिखी जाने वाली बातों को प्रकाशित करने के लिए अख़बारों में स्‍पेशल कॉलम भी बना रखें हैं, जब भी देश में कोई बड़ी बात होती है तो मीडिया वाले पहले मेरे पर आने वाली प्रतिक्रियाओं का जायजा लेते हैं, मेरे पर आने वाली प्रतिक्रियाओं को स्‍क्रीन पर फलैश भी करते हैं।

मगर मैंने इस पर कभी आपत्ति नहीं जताई। कभी रोष प्रकट नहीं किया। मैंने कभी नहीं किया, मैं मीडिया से बड़ी हूं। मैंने कभी नहीं कहा, मैं मीडिया से तेज हूं। मैंने कभी नहीं कि मैं मीडिया से ज्‍यादा ताकतवर हूं। मैं तो कुछ नहीं कहा। मैं चुपचाप पानी की भांति चल रही हूं। मैं तो मीडिया आभारी हूं, जिसने शोर मचा मचाकर मुझे पब्‍लिक में लोकप्रिय बना। अगर मीडिया ने मुझे समाचारों में हाइलाइट न किया होता, तो मैं घर घर कैसे पहुंचती। मेरे जन्‍मदाता कुछ ही सालों में करोड़पति कैसे बनते?

अब मैं सोचती हूं कि मैंने ऐसा क्‍या कर दिया जो भारतीय सरकार एवं मीडिया मुझसे खफा होने लगा है। मुझे ऐसा लग रहा है कि मीडिया को लगने लगा है कि मैं पब्‍लिक आवाज बनती जा रही हूं। नेताओं को डर लगने लगा रहा है कहीं, मैं उनके खिलाफ जन मत या जनाक्रोश न पैदा कर दूं।

अगर सरकार एवं मीडिया वाले सोचते हैं कि मेरे बंद होने से जनाक्रोश थम जाएगा। सच्‍चाई सामने आने से रुक जाएगी। तो सरकार एवं मीडिया गलत सोचते हैं, मैं तो एक जरिया हूं, अगर यह जरिया या रास्‍ता बंद होगा तो जन सैलाब कोई और रास्‍ता खोज लेगा। क्‍यूंकि जनाक्रोश को तो बहना ही है किस न किस दिशा में, अगर सरकारें एवं मीडिया उसको नजरअंदाज करता रहेगा।

मैं तो सोशल नेटवर्किंग साइट हूं। जो पब्‍लिक बयान करती है, मैं उसको एक दूसरे तक पहुंचाती हूं। मेरे मालिकों को खरीद लो। मैं खुद ब खुद खत्‍म हो जाऊंगी। जैसे मीडिया को आप विज्ञापन देकर खरीदते हैं, उसकी आवाज को नरम करते हैं वैसे ही मेरे मालिकों की जेब को गर्म करना शुरू कर दो। वो खुद ब खुद को ऐसी युक्‍त निकालेंगे सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी। मगर सोशल नेटवर्किंग अपनी लोकप्रियता खो देगी और मैं मर जाउंगी। फिर किसी नए रूप में अवतार लेकर फिर से आउंगी। जालिम अंग्रेजों सबक सिखाने के लिए मैं तेज धार कलम बनी थी। देश विरोधी सरकारों को निजात दिलाने के लिए मैं सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट बनी हूं। अगली क्रांति के लिए मैं कुछ और बनूंगी।

Sunday, September 2, 2012

हमारे स्वच्छ छवि वाले प्रधानमंत्रीजी

इसे कुछ शब्द कहूँ, उपमा कहूँ , उपाधि कहूँ या फिर हमारे मीडिया के द्वारा दिया गया सर्टिफिकेट ही मान लूँ- “स्वच्छ छवि वाले प्रधानमंत्री”? ये वे शब्द हैं जो लगातार मीडिया में हेडलाइंस और कंटेंट के हिस्से के रूप में दिखाई पड़ता रहता है. मुझे यह समझ नहीं आता कि “स्वच्छ छवि वाले प्रधानमंत्री” का अर्थ क्या लगाया जाए? भले ही इस शब्द के शब्दार्थ कुछ भी हों, कहीं ऐसा तो नहीं कि इस जुमले को मीडिया द्वारा व्ययंग के रूप में इस्तेमाल किया जाता है? ठीक है हमारे प्रधानमंत्रीजी बहुत धीर-गंभीर रहने वाले व्यक्ति हैं तथा शब्दों को बहुत नाप-तौल कर बोलते हैं. परन्तु धीर-गंभीर रहना या कम बोलना भ्रष्टाचार से मुक्त होने का प्रमाण तो नहीं हो सकता? जहाँ तक मैं सोच पा रहा हूँ कि जिस प्रकार किसी को अपराधी या भ्रष्टाचारी करार देना हमारी माननीय न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है , ठीक उसी प्रकार किसी को अपराध या भ्रष्टाचार से बरी करने का अधिकार भी हमारी माननीय न्यायपालिका के पास ही होना चाहिए. फिर हमारी मीडिया जबरदस्ती का पब्लिक रिलेशन की जिम्मेदारी अपने सर लिए क्यों ढोती रहती है? जबकि हम सभी को पता है कि किसी भी हारी हुई सेना का सेनापति जीता हुआ नहीं हो सकता. यह तो सुन कर ही अटपटा लगता है कि किसी हारी हुई सेना का सेनापति खुद को विजयी महसूस करे. इसका सामान्य सा मतलब तो यही होना चाहिए कि सेनापति के मन में पहले से ही खोट था?

हम इसे ऐसे भी सोच सकते हैं कि अगर मैं किसी घर का मुखिया हूँ तो मैं अपने घर के चोर सदस्यों के कारनामों से सिर्फ इस आधार पर पल्ला झाड़ता रहूँ कि मैं ईमानदार हूँ. ठीक है कि मैं ईमानदार हूँ लेकिन अगर मेरे घर के कुछ सदस्य चोर हैं तो क्या नैतिक आधार पर घर के सदस्यों द्वारा की गई चोरियों की जिम्मेदारी मुझे नहीं लेनी चाहिए? वह भी तब जब ए. राजा और सुरेश कलमाडी के बाद कोयला घोटाला को लेकर खुद प्रधानमंत्री पर सवाल उठ रहे हैं. लेकिन फिर हम उसी दरवाजे पर आकर ठिठक जाते हैं कि वर्तमान राजनितिक दौर में नैतिकता नाम की कोई चीज बची है क्या? इस सवाल के घेरे में सिर्फ कांग्रेस ही नहीं बल्कि हमारे देश की सभी राजनैतिक पार्टियां हैं. यह दीगर बात है की इस सवाल के जवाब की उम्मीद हमें किसी भी पार्टी से नहीं करनी चाहिए.

फिर बात वहीं आकर अटक जाती है कि “स्वच्छ छवि वाले प्रधानमंत्रीजी” का मतलब क्या है भाई?