Sunday, October 16, 2011

कुछ कहती है तस्वीरें – 10

महिला सशक्तिकरण का असली चेहरा


यह है महिला सशक्तिकरण का असली सच। कहते हैं एक तस्वीर लाख शब्दों के बराबर होती है। तब फिर इस तस्वीर की व्याख्या शब्दों से करने की जरूरत नहीं। बावजूद इसके कुछ शब्द लिखने से खुद को रो नहीं पा रहा हूँ। क्या यह तस्वीर महिला चिंतकों, खुद को स्त्री अस्मिता की ध्वजवाहक/ध्वजवाहिका मानने वालों, महिला सशक्तिकरण तथा महिलाओं के उत्थान के नाम पर लाखों-करोड़ों डकारने वालों का मुँह नहीं चिढ़ा रही है। क्या स्वयंभू/स्वमान्यधन्य/स्वघोषित स्त्रीवादियों द्वारा दो-चार सेमिनार-कॉन्फ्रेन्सेज कर लेने से महिलाओं का उत्थान हो जाएगा? क्या महिलाएं सशक्त हो जाएंगी?

हम लाख सेमिनार-कॉन्फ्रेन्सेज करते रहें, जब तक हम महिलाओं, दलितों, गरीबों के नाम पर अघोषित मार्केटिंग कर अपनी जेब भरने की आदतों से बाज नहीं आएंगे, तब तक जमीनी स्तर पर किसी भी बदलाव की बात सोचना शेखचिल्ली के सपने के समान ही होगा और ऐसी तस्वीरें हर गली-मोहल्ले में हमारा माखौल उड़ाती रहेंगी।

Monday, October 3, 2011

कुछ कहती है तस्वीरें – 9


भले ही हमारे माननीय पूर्व राष्ट्रपति .पी.जे. अब्दुल कलाम ने हमें विजन 2020 के लिए प्रेरित किया, लेकिन वर्तमान राजनीतिक द्वंद और प्रशासनिक अव्यवस्था को देखकर हमारे पूर्व राष्ट्रपति का विजन 2020, जिसे लेकर हम जैसे युवा बहुत उत्साहित रहे, अब केवल कोरे सपने से अधिक कुछ भी प्रतीत नहीं होता। हमारे राजनेताओं के थोथे वादों और चुनावी घोषणाओं पर किसी का विश्वास नहीं रहा। उनके लिए राजनीति का मतलब केवल राजनीतिक द्वंद, आरोप-प्रत्यारोप और घोटाला मैनेजमेंट रह गया है? समयचक्र व्यतीत होता जा रहा है पर हम आज भी उस जगह को बहुत पीछे नहीं छोड़ पाए हैं जहां से हमने विकसित भारत का सपना आँखों में लिए सफर की शुरूआत की थी। उपरोक्त तस्वीर उसका एक उदाहरण मात्र है। इतना ही नहीं हम अपने शहीदों की भी खिल्लियाँ उड़ा रहे हैं, जिन्होंने आजाद भारत के लिए जाने क्या-क्या सपने लिए खुद को कुर्बान कर दिया।

एक ओर योजना आयोग की वह रिपोर्ट है जो खाने पर प्रतिदिन ग्रामीण क्षेत्र में 26 और शहरी क्षेत्र में 32 रुपए खर्च करने वाले को गरीब मानने से इंकार कर रही है तो दूसरी ओर यह बच्चा है जो औरों के काम करते रहने के बावजूद इस तेज धूप में इतना निढाल हो चुका है कि जमीन को आसरा और आसमान को छत बनाकर इस मिट्टी पर ही नींद की आगोस में समा गया है। आखिर इसके लिए योजना आयोग की उस रिपोर्ट और उसपर छिड़ी देशव्यापी बहस के क्या मायने हैं?